शुक्र है... चुनाव वर्ष : कार्यकर्ताओं की तलाश
चुनावी वर्ष में सरकार एवं राजनीति दलों के क्रिया-कलापों तथा कार्यकर्ताओं के चयन की प्रक्रिया व उनकी योग्यता के मापदंड बताता यह खास व्यंग्य चुनाव के इस मौसम में खास आपके लिए।
चुनाव-वर्ष में देश में खुशहाली छा जाती है। हमने कई बार अपने-आपसे सवाल किया है कि चुनाव हर साल क्यों नहीं होता। पंचायतों के दिन फिरते हैं, नगरपालिकाओं के भाग्य चेतते हैं। पूँजीपतियों की थैली खुलती है। कुछ रैली के नाम पर अस्थायी रोज़गार पाते हैं, कुछ जवाहर योजना के। सरकार धड़ाधड़ हर व्यक्ति के लिए 'पैकेज' का ऐलान करती है। कभी किसानों का कल्याण होता है, कभी महिलाओं का। हमारे हिसाब से सरकार ने सबको 'कवर' कर लिया है। बस बच्चे बचे हैं। उनको बगैर इम्तहान एक क्लास आगे प्रमोट किया जा सकता है। कुछ नहीं तो पर्वतारोहियों के सामान से भारी स्कूल बैग का वज़न कम कर उनकी कमर ही सीधी रहने दें। पर ऐसा नहीं होगा। बच्चे वोटर नहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि तरक़्क़ी के कार्यक्रम इसी चुनाव की देन हैं। हर चुनाव के पहले प्रगति के वादे, सुधार की घोषणाएँ, हर क्षेत्र को आर्थिक रियायतें, इलेक्शन प्रक्रिया का अनिवार्य अंग हैं। एक अज्ञानी जानना चाहता है, इस सबके बावजूद देश क्यों वहीं का वहीं टिका है। 'हमारा हिंदुस्तान तो शर्तिया जापान होता। बस जनसंख्या से मार खा जाता है।' हम प्लानिंग कमीशन का पढ़ाया पाठ दोहराते हैं। इस बार भी लोग सर्दी से मर रहे हैं, पर बिना ख़बर बने। उनसे चौगुने जन्म ले रहे हैं, बावजूद 'हम दो हमारे दो' की पुकार सुने। दूरदर्शन, रेडियो और अख़बारों का वातावरण भाषणों और उद्घाटनों का है। अब जो जिसके बस में है, वही तो करेगा। कुछ शिला पूजते हैं, कुछ शिलान्यास करते हैं। 'पर इन घोषित कार्यक्रमों और कारनामों में से कितनों पर अमल होता है।' हमारे जिज्ञासु मित्र फिर पूछते हैं। उन्हें कौन समझाए कि यह सब शुगल की बातें हैं, चुहल की हो सकती हैं पर अमल की क़तई नहीं।
परेशान इंसान ही तो ज्योतिषी के पास जाता है। ज्योतिषी वर्तमान भुलाकर उसे अतीत की स्मृति, भविष्य का अभय देता है। चंद सिरफिरों का धर्म भी जनता की सेवा रहा होगा, अब तो राजनेता का कर्म केवल सत्ता हथियाना है। समस्याएँ नहीं रहीं तो सब्जबाग दिखाकर वोट कैसे मिलेंगे? राजनीतिक ज्योतिष का उसूल है कि करो न करो पर कहो तो जरूर।
मंच से कहने के लिए कार्यक्रम बनते हैं। किसी को आरक्षण से रिझाया जाता है, किसी को संरक्षण से। उसमें बड़े बजट की फ़िल्म-सा-सेक्स, मारधाड़, संगीत का मसाला मिलाया जाता है। फिर भी अनिश्चित रहता है कि सियासत की फ़िल्म टिकट खिड़की पर टिकेगी या पिटेगी। फ़िल्म वाले विज्ञापन से काम चला लेते हैं। राजनीतिक दल घर-घर अलख जगाते हैं। जो रैली से बचे या जवाहर योजना के रोजगार से, उनकी चाँदी हो जाती है। दल के दफ्तर के सामने भीड़ लगी है। सब कार्यकर्ता बनना चाहते हैं। एक पदाधिकारी प्राथमिक चयन की औपचारिताएँ निभा रहे हैं-
'तो आप कार्यकर्ता बनेंगे!'
'जी हाँ!'
'इस काम का कोई अनुभव है?"
'पिछले चुनाव के दौरान तो स्कूल में था, पर अब तक तीन बसें जलायी हैं और दस-पंद्रह के काँच तोड़े हैं। स्कूल के दिनों में 'मिस' की मेज़ पर छिपकली और बैग में मेढक डाला था। प्रिंसिपल ने स्कूल से ही निकाल दिया था।'
'आपका सैद्धांतिक दृष्टिकोण क्या है 'मैं आपका सवाल नहीं समझा।'
'मेरा मतलब है कि आपकी कोई 'पॉलिटिकल आईडियोलॉजी' है ?'
'मैं किसी दूसरे पर यकीन नहीं करता। मुझे सिर्फ अपने बाहुबल पर भरोसा है।'
प्रत्याशी चुन लिया गया है। दूसरे की गुहार लगती है।
'आप क्यों हमारे दल के लिए काम करना चाहते हैं?’
'घर में बेकार रहने से तो बेहतर है कि कुछ किया जाए। फिर राजनीति में मेरी रुचि भी है।'
'वह कैसे?'
'मैंने मार्क्स, गांधी और लोहिया को पढ़ा है। मेरे विचार से पॉलिटिक्स जनता की सेवा का सशक्त माध्यम है।'
'बड़ा नेक इरादा है आपका। कार्यालय के बाहर पान की दुकान खोलकर आप फिलहाल हम लोगों की सेवा करें। इस तजुर्बे से आप बिना कार्यकर्ता बने नेता बन जाएँगे।
इस सलाह के साथ प्रत्याशी की छुट्टी हो गयी। छोटे नेता ने अपनी सूची बड़े नेता के सामने पेश की।
'रामसेवकजी! आपने तो लिस्ट में अधिकतर बी.ए., एम.ए. रखे हैं। काम कैसे 'चलेगा!' बड़े नेता ने टिप्पणी की।
'क्या करें सर! इधर पढ़े-लिखे और बेकार किस्म के ही लोग मिल रहे हैं। मैं छँटनी तो बहुत की है पढे-लिखों प्रतिशत बढ़ गया। अनपढ़ों में कोई रिक्श चला रहा है, कोई अपने धंधे में लगा है। उनका 'रेट' भी ज्यादा है सर!' छोटे न सफ़ाई दी।
बड़े नेता ने विवश हो इसी कच्चे माल से अपनी चुनाव-वाहिनी चुनने का फैसला किया, 'कल इन लोगों को मेरे सरकारी कार्यालय बुला लीजिए।'
बड़े नेता का कमरा वैसा ही था जैसा गरीब देश के ख़ास जनसेवकों का होता है। सोफा, कारपेट, चार एअरकंडीशनर, हर रंग के फ़ोन, ताज़े गुलाव एक छोटा-सा कम्प्यूटर उनकी बड़ी मेज़ पर लाडले बच्चे-सा बैठा था। इंटरव्यू शुरू हुआ-
'आपकी क्वालिफिकेशन।'
'राजनीतिशास्त्र में एम.ए. किया है। 'भारतीय प्रजातंत्र में कुछ परिवारों के योगदान' पर रिसर्च कर रहा हूँ।'
'इनके लिए दुम मँगवायी?' बड़े नेता ने छोटा-सा सवाल किया। छोटे ने कपड़े की एक लाल दुम प्रत्याशी के पार्श्व भाग में लगा दी।
'इसे हिला सकते हैं?'
प्रत्याशी ने कोशिश की। उसने उछल-कूद की। वह हिला तो दुम साथ हिली, पर स्थिर रहकर वह दुम को हिला नहीं पाया। ‘राजनीतिक कार्यकर्ता बनना कोई हँसी-खेल नहीं है। दुम तो हम लगवा देते हैं। पर उसे सही समय पर हिलाने के लिए अभ्यास और प्रशिक्षण जरूरी है। हम आपको पंद्रह दिन की ट्रेनिंग इस हुनर में महारत हासिल करने के लिए देंगे। इसके बाद 'दुम हिलाओ प्रतियोगिता' के रिजल्ट पर आपका सिलेक्शन मुनहसिर है।' साक्षात्कार समाप्त हो गया।
'सर! लड़का ज़रूरतमंद और अनुशासित है। बिना चूँ-चपड़ के उसने दुम लगवा ली।' छोटे ने राय दी। बड़े ने कम्प्यूटर के बढ़न दबाकर उसकी स्क्रीन को ताका और निर्णय सुनाया,' 'पोटेंशियल' है। ट्रेनिंग में मेहनत कर ले तो काम का आदमी है।'
दूसरे कैंडिडेट को बुलाया गया।
'आप पढ़े-लिखे हैं?'
'पाँच साल पहले बी.ए. किया था।'
‘क्या करते हैं?'
'पैसे लेकर जरूरतमंद की अर्जी लिखता हूँ। मुकदमों में पुलिस की ओर से गवाही देता हूँ। जनता के हित में खाने-पीने की दुकानों का माल चखकर उनके स्तर की निगरानी रखता हूँ। सर! इसी तरह के समाजसेवा के कामों में वक्त गुज़र जाता है।’
'आपका किस वाद में यकीन है?'
'जो भी आपका वाद हो सर!'
'भ्रष्टाचार के बारे में आपका क्या ख़्याल है?’
'यही तो आज का आचार-विचार और समय की पुकार है सर! पैसा नहीं जोड़ा तो पार्टी चुनाव कैसे लड़ेगी? अगर चुनाव नहीं हुए तो प्रजातंत्र कैसे चलेगा? लोकतंत्र के लिए भ्रष्टाचार लाज़मी है सर!'
‘देश का नेता कैसा हो?' बड़े नेता ने पूछा।
'बिल्कुल आपके जैसा हो।' प्रत्याशी ने उत्तर दिया।
उसके जाने के बाद नेता ने कम्प्यूटर का बटन दबाया। अट्टहास गूँजा। 'यह बिना ट्रेनिंग के ‘परफ़ैक्ट' है। इसे नियुक्ति पत्र दे दें।' बड़े नेता ने छोटे को आदेश दिया।
दलों को फिर भी दिक्कत है। सही कार्यकर्ताओं के अभाव है। पढ़-लिखकर लोगों के जिस्म में आदर्शों का जहर घुल जाता है। नेता के प्रति निष्ठा संदेहास्पद हो जाती है। दुम दें भी तो हिला नहीं पाते। महँगाई को भ्रष्टाचार से जोड़ते हैं। गांधी की बात करते हैं। लुब्बे-लुबाव यह कि जम्हूरियत के उसूल नहीं मानते। हर तरकीब से कार्यकर्ताओं की खोज हो रही है। कहीं कम्प्यूटर जैसे सलाहकार से, कहीं जात-पात के विचार से। कुछ अभिनय कला के कलाकार तलाश रहे हैं तो कुछ जेल गए गुनाहगारों में से उम्मीदवार। बेरोज़गारी के कल-कारख़ानों के प्रोडक्ट तो बेशुमार हैं, योग्यता वाले कार्यकर्ता बनने के हक़दार कम। हाल पर इस मुल्क के रोता है क्या! आगे-आगे देखिए होता है क्या!
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लेखक परिचय
गोपाल चतुर्वेदी (१५ अगस्त १९४२) हिंदी के एक लेखक और व्यंग्यकार हैं। वे भारतीय रेल सेवा के अधिकारी भी रह चुके हैं और वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। चतुर्वेदी की रचनायें प्रतिष्ठित प्रकाशनों द्वारा छापी गयी हैं और उनके लेख, व्यंग्य और अन्य रचनायें कई पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। चतुर्वेदी को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा "यश भारती" और केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा "सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार" से सम्मानित किया जा चुका है। उपरोक्त व्यंग्य ‘डायमंड बुक्स’ (डायमंड पॉकेट बुक्स) द्वारा प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘51 श्रेष्ठ रचनाएं : गोपाल चतुर्वेदी’ पुस्तक से साभार लिया गया है। संपादक ‘डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल’ द्वारा संपादित यह पुस्तक आप बुक स्टोर से अथवा www.dpd.in पर ऑर्डर कर के भी मंगवा सकते हैं। विशेष आग्रह,- पुस्तकें सच्ची मित्र होती हैं। इसलिए ये जहां भी मिलें, सहेजें और इनसे मित्रता कर लें।)
डिस्केलमर
यह व्यंग्य सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन के उद्देश्य से साप्ताहिक व्यंग्य शृंखला ‘शुक्र है...’ में लिया गया है। हमारा उद्देश्य किसी सरकार, किसी राजनीतिक दल अथवा नेता पर सवाल उठाना नहीं है। इसलिए सिर्फ पढ़िए और आनंद लीजिए।
एसीएन टाइम्स