बुरा न मानो होली है ! पत्रकारिता : 'होलियाना परिभाषाएं- प्रो. अज़हर हाशमी की कलम से
जैसे ही होली विविध रंगों का त्योहार है वैसे ही कवि, साहित्यकार, चिंतक, समालोचक, व्यंग्यकार, गीतकार प्रो. अज़हर हाशमी के लेखन के भी अलग-अलग रंग हैं। होली के विशेष अवसर पर प्रस्तुत है उनके लेखन का मूल रंग। यह 'रंग' कितना 'रचा' यह पढ़ कर जरूर बताएं। बता दें कि यह सिर्फ होली के दो दिन आनंद लेने के लिए ही है।

प्रो. अज़हर हाशमी
होली के 'रंग' और मौज-मस्ती की 'तरंग' में इस लेखक अर्थात् अज़हर हाशमी ने पत्रकारिता के 'ढोल की पोल' पर रिसर्च की है। यह रिसर्च टी.वी. चैनलों की 'चिल्ल-पों' पर नहीं बल्कि प्रिंट-मीडिया के गिरगिटीकरण' पर है। यह रिसर्च 'होली की हड़बड़ी में की गई है इसलिए 'निष्कर्षों में गड़बड़ी' हो सकती है। हड़बड़ी के लिए होली जिम्मेदार है और गड़बड़ी के लिए लेखक नहीं बल्कि वे जिम्मेदार हैं जिन पर रिसर्च की गई है। इसलिए लेखक की बुद्धि पर तरस खाएं या न खाएं, लेकिन मुस्कान के रंग जरूर बरसाएं। वैसे भी होली पर कवियों या लेखकों को अक्ल का अजीर्ण हो जाता है। इस लेखक ने भी 'अक्ल के अजीर्ण के साथ, प्रिंट मीडिया की जीर्ण-शीर्ण परिभाषाओं को होलियाना मूड में 'तीक्ष्ण' कर दिया है।
प्रस्तुत हैं पत्रकारिता (प्रिंट मीडिया) की 'होलियाना' परिभाषाएं
प्रधान संपादक
इसकी दो प्रजातियां होती हैं।
प्रथम प्रजाति का प्रधान संपादक बुद्धिमान, धनवान, विद्यावान होता है। उसका सोच भी मौलिक होता है और लेखन भी मौलिक। हर विषय पर उसकी पैनी पकड़ होती है। यह संसार/संस्कार पर सर्वाधिक लिखता है किंतु व्यवहार में वैसा नहीं दिखता है।
दूसरी प्रजाति का प्रधान संपादक वह होता है जिसका अग्रलेख कोई दूसरा व्यक्ति लिखता है लेकिन नाम और फोटो इसी का (प्रधान संपादक का) छपता है।
प्रधान संपादक चाहे प्रथम प्रजाति का हो अथवा दूसरी प्रजाति का दरअसल 'घाघ' होता है, इसलिए कर्मचारियों की दृष्टि में 'बाघ' होता है।
समूह संपादक
यह वह व्यक्ति है जिसे अक्सर दौरे का दौरा पड़ता रहता है। समूह संपादक कहीं-कहीं कई बार स्टेट हेड अर्थात राज्य संपादक भी होता है। समूह को संभालने के चक्कर में इसका 'संपादकत्व’ खो जाता है और यह केवल 'टूरिस्ट' हो जाता है। यह इतने 'टूर' करता है वि चाहे तो संपादन छोड़कर किसी भी 'टूर एंड ट्रेवल’ एजेंसी का प्रबंधन कर सकता है।
संपादक
वह शख्स है जो किसी लेखक के आलेख की 'गर्दन' छोड़ देता है और 'हाथ-पांय-कमर' तोड़ देता है। विरोधी कर्मचारियों को संपादक 'शनि' की दृष्टि से देखता है और पनौती या साढ़े साती की तरह लग जाता है।
समाचार संपादक
यह वह व्यक्ति है जो समाचार का 'अचार' और अचार का 'समाचार' बना देता है। जैसे बिल्ली की नजर 'छींके' पर रहती है वैसे समाचार संपादक की नजर 'स्थानीय संपादक' की कुर्सी पर रहती है। कभी-कभी बिल्ली के भाग्य से छींका टूट भी जाता है।
संपादकीय पृष्ठ प्रभारी
यह है तो बहुत 'लायक' शख्स, लेकिन इसको कार्य के बोझ से इतना लादा जाता है, कि यह 'पीर बावर्ची, भिश्ती, खर' हो जाता है और खुद को 'बड़ा बाबू' समझकर की संत्रस्त रहता है। इस लायक शख्स के साथ कहीं-कहीं 'नालायक' जैसा व्यवहार किया जाता है।
मैनेजर
यह वह शख्स है जो मालिक के सामने 'मिमियाता' है और 'खिसियाता' है, लेकिन संपादकीय विभाग पर 'दहाड़ता' है और कभी-कभी 'धकियाता' है।
स्तंभकार
ऐसा व्यक्ति है जो स्तंभ-लेखक के लिए विचारों का मलखंभ करते हुए विवादों के माउंट एवरेस्ट पर चढ़कर अपना ब्लड प्रेशर बढ़ा लेता है।
लेखक
शब्दों के 'उजास' के मोह में 'छपास-रोग' से ग्रस्त व्यक्ति यह "मैं" ही हूं यानी अज़हर हाशमी।
समीक्षक
यह नाबीना भी हो सकता है और नज़रवाला भी। नाबीना है तो 'खुन्नस' निकालेगा, नज़रवाला है तो 'खुलासा' करेगा।
ब्यूरो चीफ
'बड़ा' 'चीप' से ही शायद 'ब्यूरो चीफ' बना है। इसके आस-पास दो-चार 'पालतू' यानी 'फालतू' बैठे रहते हैं। यह अर्थात ब्यूरो चीफ लोगों को 'चमकाता' रहता है, लेकिन सेर-को-सवा सेर मिलने पर खुद भी 'चमक' जाता है।
मैगजीन इंचार्ज
ऐसा शख्स जो 'तिल' को 'ताड़' बनाता है और 'संगीन' को 'रंगीन' करता है।
विशेष संवाददाता
ऐसा 'कलाकार' जो प्रायः दारू पीकर दारू के विरोध में विशेष संवाद भेजता है।
संवाददाता
ब्यूरो चीफ नामक 'उस्ताद' का 'पट्ठा' जो अखबार के परिचय-पत्र को 'लट्ठ' की तरह लेकर घूमता रहता है।
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नोट : प्रिंट मीडिया की ये परिभाषाएं केवल और केवल - दो दिनों के लिए ही हैं। यानी होली जलने वाले दिन और धुलेंडी वाले दिन के लिए। धुलेंडी के बाद इन परिभाषाओं को मान्यता स्वतः समाप्त हो जाएगी। मान्यता के लाइसेंस का पुनर्नवीकरण नहीं होगा।