नीर का तीर : ये कुर्सियां फेविकोल के जोड़ वाली हैं, जो बैठता है चिपक ही जाता है, जहां 'श्री' से हो 'शृंगार' वहां इज्जत जाए पर कुर्सी न जाए
इस बार के नीर-का-तीर कालम में महिमा कुर्सी की और कुर्सी से प्रेम की। पसंद आए तो औरों तक जरूर बढ़ाएं। पसंद नहीं आए तो कमेंट बॉक्स में कमी भी बताएं, क्योंकि सुधार के लिए यह जरूरी है।

नीरज कुमार शुक्ला
किसी ने कहा है कि, कुर्सी, सत्ता और प्रेम, ये तीनों ही तत्व प्रायः एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। कुर्सी का मोह, सत्ता का लालच और प्रेम की चाहत, ये भावनाएं मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुर्सी और सत्ता से प्रेम को लेकर बहुत सारे जुमले प्रचलित हैं और कई रचनाकारों ने तो कुर्सी और उससे लोगों के प्रेम को लेकर बहुत सारे दोहे और कविताएं भी रची हैं।
पहले पढ़िए रामचंद्र दीक्षित ‘अशोक’ के ये दोहे और फिर बात करेंगे कि ‘नीर-का-तीर’ का विषय कुर्सी पर केंद्रित रखने की वजह...
कुर्सी से जुड़े दोहे
कुर्सी ऐसी नायिका, जिसके रूप हजार ।
इसको पाने के लिए, लंबी लगे कतार ।।
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कुर्सी के क्रेता यहां, होते लाख - हजार ।
ऊंची बोली बोलते, बीचों - बीच बजार ।।
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कुर्सी किस्मत की धनी, बिकती बीच बजार ।
लेता इसे खरीद जो, तिकड़म करें हजार ।।
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कुर्सी की सेवा करो, मेवा मिलती धाय ।
धन दौलत इतना मिले, घर में नहीं समाय।।
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कुर्सी पर जो बैठता, दूध - मलाई खाय ।
करें आचमन दूध से, दूधै रहा नहाय ।।
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कुर्सी ही अधिकार है, कुर्सी शिष्टाचार ।
कुर्सी पर ही बैठि के, होता भ्रष्टाचार ।।
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कुर्सी की अति लालसा, हुआ बहुत उपहास ।
सोचे जनता की नहीं, खुद का करें विकास ।।
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अब मुद्दे की बात...
मध्यप्रदेश में हाल ही में तबादला उद्योग शुरू हुआ है। रोज दर्जनों अधिकारियों-कर्मचारियों के तबादला आदेश जारी हो रहे हैं। इनमें वे कारिंदे भी शामिल हैं जो एक ही जगह और एक ही कुर्सी पर चिपक गए थे। किसी को पांच, दस तो किसी को इससे भी ज्यादा समय हो गया था। दूध-मलाई देने वाली कुर्सी का जोड़ तो फेवीकोल के जोड़ से भी ज्यादा मजबूत होता है। कुछ कारिंदे हिलती-डुलती कुर्सी को भी इस करीने से जमाते और खुद भी जमते हैं कि भले ही जान चली जाए, कुर्सी न जाने पाए।
पांच साल, तो किसी से 10 साल चिपकी रही कुर्सी !
वैसे तो ऐसी कुर्सियां हर जगह हैं लेकिन सोने की नगरी रतलाम में ‘करामाती कुर्सियों’ कुर्सियों की संख्या ज्यादा है। जिले के परिवहन विभाग की सबसे बड़ी कुर्सी तो बीते 5 साल से एक ही लोकसेवक को अपने से चिपकाए हुए थी। कहते हैं कि इस कुर्सी पर बैठने वाला खुद तो दूधों नहाता ही है, उसकी सात पुश्तें भी तर जाती हैं। हमें तो लग रहा था कि सिर्फ रतलाम की ही कुर्सी ज्यादा चिपकने वाली है लेकिन पता चला है कि अब जो यहां की कुर्सी पर बैठने आने वाले हैं वे खंडवा में अपनी पुरानी कुर्सी पर लगभग 10 वर्षों से चिपके थे। उन्हें कुर्सी से उठाने के लिए लोगों को खासी मशक्कत करना पड़ी लेकिन कामयाबी नहीं मिली। भला हो सरकार का जिसने कुर्सी (स्थान) एक्सचेंज करने की सुविधा दे दी जिससे दोनों अफसरों को एक-दूसरे की जगह जाने का अवसर मिल गया।
MD से ज्यादा नशीली यहां की कुर्सियां !
रतलाम की नगर सरकार के कार्यालय की कुर्सियां भी लाभप्रद हैं, फिर चाहे कुर्सी स्वास्थ्य अधिकारी की हो, लेखापाल की हो या फिर अन्य साहबान की। यहां की कुर्सियां तो अयोग्य और बिना अनुभव वाले को भी वर्षों तक अपने से चिपकाए रहती हैं। ये कुर्सियां अपने ऊपर काबिज होने वालों को सिर्फ दूध से ही नहीं नहलातीं, अपितु उन पर रुपयों की बारिश में भीगने का सुअवसर भी देती हैं। जिन्हें भी इस बारिश में भीगने का चस्का लगता है वह या तो कुर्सियों से हटता नहीं और यदि हटना बी पड़े तो जोड़-तोड़ कर फिर उसी पर आ धमकता है। लोगों की मानें तो यहां की कुर्सियां मादक पदार्थ MD से भी ज्यादा नशीली हैं। जिन पर भी इसका नशा चढ़ता है, वे ऐन-केन-प्रकारेण फिर से आ ही जाते हैं। यहां के कुछ कारिदों को न चाहते हुए भी कुर्सी छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि वे कसम खाकर जा रहे हैं कि वे यहां एक बार अवश्य आएंगे और उसी कुर्सी पर लद कर दूध-मलाई खाएंगे।
इज्जत जाए, कुर्सी न जाए !
रतलाम के ही शिक्षा से जुड़े विभाग की कुर्सियों का चुम्बकीय प्रभाव भी काफी प्रभावी है। उधार (प्रतिनियुक्ति) के अधिकारियों-कर्मचारियों के भरोसे चलने वाले इस विभाग की कुर्सियों के चुम्बकत्व के प्रभाव का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके लिए लोग अपनी इज्जत तक दांव पर लगा सकते हैं। इसकी वजह यहां हर काम के लिए ‘श्री’ (लक्ष्मी) से ही ‘शृंगार’ होना बताया जा रहा है। बीते घटनाक्रमों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि सार्वजनिक रूप से इज्जत खो चुके कतिपय कारिंदों ने ‘जिम्मेदारों’ को ऐसे साधा कि उन्होंने फिर से उन्हें कुर्सियां सौंप दी। ये वही हैं जिन्होंने अपने कृत्यों से खुद की इज्जत का तो फालूदा बनवाया ही, विभाग की इज्जत भी तार-तार करवाने में कोर-कसर बाकी नहीं रखी। यहां औरों को मौका देने के नियम भी ताक पर ही धरे नज़र आए।