कवि और कविता : 'माथे पर लिखी हज़ार ख़तों की इबारत...'

कवि और कविता सृखला में युवा लेखक आशीष दशोत्तर से जाने नाटककार, रचनाकार और डॉ. हरीश पाठक के काव्य सृजन की विशेषता।

कवि और कविता : 'माथे पर लिखी हज़ार ख़तों की इबारत...'
डॉ. हरीश पाठक (कवि, नाटककार और संवेदनशील रचनाकार)

आशीष दशोत्तर 

कविता का कैनवास बहुत बड़ा होता है। कवि अपनी कल्पनाशीलता और यथार्थ के साथ सामंजस्य बिठाते हुए इस कैनवास पर जो रेखांकन करता है वह एक ऐसा आकार ग्रहण करता है जिसे हम कविता कहते हैं। यह कविता कवि के व्यक्तित्व, उसकी समझ, उसके सोच के विस्तार और उसकी पक्षधरता को व्यक्त करती है। इसमें कवि का चिंतन, मनन और किसी भी दृश्य को देखने की क्षमता का अवलोकन होता है।

एक लंबे समय तक अपनी रचनात्मकता से हिंदी साहित्य को अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते रहे, कवि, नाटककार और संवेदनशील रचनाकार डॉ. हरीश पाठक की रचनात्मकता समय से कदमताल करती रही। वे नई सुबह लाने की ख़्वाहिश रखने वाले रचनाकार थे। उनकी कविताएं एक नई उम्मीद की कविताएं थीं। इन कविताओं में अंधकार से व्याप्त बेचैनी और उस से जूझने का हौसला दिखाई देता है। कवि इस अंधेरे को मिटा कर एक नई रोशनी बिखेरने का प्रयत्न करता है। 

एक रात की एक निस्तब्ध लकीर 

कितनी ही रातों की निस्तब्ध स्याह लकीरें 

एक सुबह एक शुरुआत 

कितनी ही सुबहों की कितनी ही क्रूर शुरुआतें 

एक चढ़ता दिन और ढलती शाम 

चढ़ते दिनों और ढलती शामों के 

अंतहीन बड़बड़ाते खाली पन्ने ‌। 

ज़िंदगी की जद्दोजहद और तमाम विसंगतियां किसी भी रचनाकार को झकझोरती है। उसे व्यथित करती है और लिखने के लिए विवश भी करती है । कवि जब इन विसंगतियों पर इतनी कलम चलाता है तो वह उन सारे संदर्भों को भी सामने रखता है जिनसे होकर व्यवस्था को बेहतर बनाया जाना चाहिए था, मगर नहीं बनाया जा रहा है । कभी अपने बिम्बों के ज़रिए और इशारों-इशारों में कई सारे संकेत देता है।

आपने ही पहले-पहल बताया हमें 

उस वक्त 

जब सूरज ठीक हमारे ऊपर जल रहा था 

हमारा मुल्क तरक्की से बहुत आगे बढ़ गया है,

मंज़िल की आखिरी पीढ़ी पर पहुंचा 

फिर अपने ही छोड़े ब्रह्मास्त्र पर उड़ गया है। 

डॉ. हरीश पाठक की कविताएं आम जनजीवन की कविताएं थीं। ये कविताएं आम व्यक्ति की पीड़ा, उसकी व्यथा और उसकी विवशता को उजागर करती है। इन कविताओं में ज़िंदगी की वे बेचैनियां बाहर आती हैं जिनसे एक सामान्य व्यक्ति दो-चार होता है। 

कोई भी रचनाकार अपनी परिस्थिति और परिवेश से मुंह नहीं मोड़ सकता। संवेदनशील रचनाकार वही होता है जो इन सारे दुःख- दर्द को अपना दर्द समझे और यह तय करे कि वह किसके साथ खड़ा है। व्यवस्था को जितना बेहतर बनाया जाना चाहिए था, नहीं बनाया जा सका। आम ज़िंदगी में जो खुशियां भी बिखेरी जानी चाहिए थी, नहीं बिखेरी जा सकीं। सूनीआंखों में मौजूद सपने साकार होने थे, नहीं किए जा सके। कवि इन सब के लिए व्यवस्था के विरोध में खड़ा होता है। एक रचनाकार सदैव व्यवस्था के विरोध में ही खड़ा होता है और इस तरह आम ज़िंदगी के पक्ष में दिखाई देता है। वह उस शोषक और कुटिल व्यवस्था का विरोध करता है जिसके कारण जीवन दूभर होता जा रहा है। श्री पाठक की कविता में कई सारे दृश्य साथ साथ चलते हैं। वे अपनी कविता में अपने पक्षधरता को स्पष्ट भी करते हैं और अपने पक्ष को मज़बूती से भी रखते हैं। 

पूरी संजीदगी से टोका उसे आपने 

जो बयान कर रहा था 

अपनी ही दुःखों की तफ़सील 

आपने कहा 'मौत का एक दिन मुअय्यन है' 

चलते रहो समस्याओं की हवा में झूल कर 

भूल कर कि हम ग़रीब हैं 

दमखम से तरक्की का मीज़ान करो 

कहो मेरा देश है ये। 

डॉ. पाठक ने अपनी कविताओं में आधे समाज के के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए उसके भीतर दबे दर्द को सामने लाने की कोशिश की। वह सब कुछ हो कर भी कुछ नहीं है। जिसके ज़रिए सबको पहचान मिलीं, उसकी अपनी ख़ुद कोई पहचान नहीं। सभी के साथ रहकर भी वह किसी की नहीं। यहां तक कि वह खुद की भी नहीं रह पाती है। यह सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए पाठक जी ने अपनी कविताओं में स्त्री विमर्श की उसी चेतना को मज़बूत किया है। 

न जाने 

कितनी नदियों का संगम है उसके भीतर 

पर वह कहती है 

उसने आज तक नदी नहीं देखी 

नदी, एकदम नदी जैसी नदी। 

राजनीतिक विसंगतियों से रचनाकार प्रभावित होता ही है। वस्तुतः वह सामाजिक होने के साथ समाज से जुड़ी उन सभी क्रियाओं से भी जुड़ा होता है जो जन सामान्य के लिए आवश्यक है। राजनीतिक सामान्य जनजीवन को बहुत प्रभावित करती है। राजनीति में निरंतर आते पतन और जन सामान्य को राजनीति के माध्यम से बरगलाने की कोशिशों को पाठक जी ने अपनी कविताओं के ज़रिए बखूबी उजागर किया है। न सिर्फ उजागर ही किया बल्कि उन्होंने राजनीति के जरिए आम आदमी को छलने वाली ताक़तों पर उंगली भी उठाई। 

बाहर हल्ला हो रहा था 

आप बोलते रहे 

लोग सो गए 

आप बोलते रहे।

आप आए हार, फूल , गुलदस्तों को ओढ़कर 

और श्रद्धांजलि पढ़ कर चले गए

हमें ब्लैक बोर्ड साफ करने हैं 

जो रंग दिए आपके ही फालतू हाथों ने।  

कई बार रचनाकार होने और न होने के बीच कई सारे सवाल खड़े करता है। जो चीज़ हो कर भी नहीं है और जो नहीं होकर भी है, उसे पहचानने की शक्ति और उसे देखने की दृष्टि एक रचनाकार के पास ही होती है। वही रचनाकार सफल होता है जो अपने समय के आंख में आंख डाल कर देखता है और समय से सवाल करता है। उसके सवाल उन सैकड़ों आंखों की उम्मीद और आशाओं के लिए सहारा बन जाते हैं जो सदियों से अपने होने को पहचानने में पथरा गई हैं। 

देहरी पर पांव रख 

देखती क्षितिज तरफ़ 

डूबती शाम इंतज़ार करती है वह डाकिये का 

डाकिया उसका साहित्य कोष ,

बांचता ख़तों की इबारत ,

ख़त कभी लिखे नहीं उसने 

सुने हैं या इंतज़ार किया है ।

हजार ख़तों की इबारतें उसके माथे पर 

सलवट बन उभरती है। 

एक रचनाकार को अपनी अभिव्यक्ति में पूरा ईमानदार होना चाहिए। इस साफगोई से ही उसका रचना स्तर बेहतर होता है। पाठक साहब की रतलाम में काफी सक्रियता रही। जब वे उज्जैन  में थे तब 1966-67 में एक अखबार निकाला 'कनटोपा', उसके संपादक पाठक जी थे। कॉलेज के प्राचार्य थे डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन'। देवताले जी प्रमोशन पर पिपरिया जा चुके थे। इस संबंध में पाठक जी ने रोचक संस्मरण बताया, ' हमारी इस मुहिम का तत्कालीन मौकापरस्त प्रोफेसरों ने कव्वे की कांव-कांव शीर्षक से समाचार अख़बार में दे दिया, जिसके पीछे शहर के व्यवसायियों का भी हाथ था।'

डॉ. हरीश पाठक का रतलाम से काफी गहरा नाता रहा। वे यहां महाविद्यालय में पदस्थ रहे और उन्होंने कई विद्यार्थियों को न सिर्फ एक शिक्षक की तरह बल्कि एक साथी की तरह शिक्षा प्रदान की। ख़ासतौर से रंगकर्म के क्षेत्र में उनके द्वारा रतलाम में किए गए प्रयास आज भी याद किया जाते हैं। नाटकों की रिहर्सल में पूरे समय उनकी मौजूदगी और उनके सूक्ष्म निर्देशकीय वक्तव्य आज भी रंगकर्म को नई दिशा देते हैं। उनकी रंगकर्म में गहरी रूचि के कारण ही उन्होंने रतलाम में युगबोध, जन नाट्य मंच के माध्यम से आयोजित होने वाले नाटक में अपनी सार्थक उपस्थिति प्रदान की । रंगकर्म के प्रति उनका समर्पण और नए कलाकारों को प्रोत्साहित करने की उनकी शैली अद्भुत थी। वे कलाकारों की पीठ थपथपाते और उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते। उनका यही सहज, सरल स्वभाव एक पूरी पीढ़ी को रंगकर्म से जोड़ता गया। आज रतलाम में रंगकर्म की जब चर्चा होती है तो डॉ. हरीश पाठक के ज़िक्र के बग़ैर पूरी नहीं होती। उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है।उनका संकोची स्वभाव और रंगकर्म के प्रति लगाव प्रेरित करने वाला था।

वे अपने परिवेश से वाबस्ता रहे। बहुत छोटे-छोटे संदर्भों से कोई महत्वपूर्ण बात निकाल लेने का अलग ही उनका अंदाज़ था। वे अपने सामान्य से लहजे में भी कई ख़ास बातें कह दिया करते थे। 

आपने चीख़ कर कहा 

वह देखो मैली कमीज़ ।

आप मुस्कुराए -सीखो तमीज़।

फिर आप चुप 

बात आपकी 

और अर्थ उसका महीन। 

उनकी कविताएं अनावश्यक विस्तार से बचने के साथ आवश्यक संदर्भ से एकाकार होती रहीं।प्रकृति उनकी रचनाओं में बार-बार लौट कर आती रहीं मगर बड़ी सहजता और सरलता से। प्रकृति के माध्यम से उन्होंने जीवन के विभिन्न दृश्यों को प्रस्तुत करते हुए एक सकारात्मक वातावरण बनाने की कोशिश की। दरअसल प्रकृति किसी भी रचनाकार के भीतर एक आनंद का संचार करती है और यही आनंद उसे सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। डॉ. हरीश पाठक के यहां भी प्रकृति एक ऐसे रूप में प्रस्तुत होती रही जिसने उनकी कविता को ताक़त दी और साथ ही उस मनुष्य को भी ताक़त दी जिसके लिए उन्होंने रचनाएं लिखीं। 

वसंत आ रहा है 

दूर कहीं बारिश हो रही है 

टूट कर गिर रहे हैं बर्फ के पहाड़ 

सर्द हवाएं ठिठुरन में जकड़ रही है।

वसंत आ रहा है 

गुनगुनाने लगे हैं पेड़ 

जवान होने लगीं हैं फूल-पत्तियां।  

पाठक जी का जन्म 11 नवंबर 1946 को उज्जैन में हुआ। वे हिंदी के प्राध्यापक रहे। उन्होंने कविता के अतिरिक्त कहानियां भी लिखीं।  उनकी कविताएं उनके काव्य संग्रह 'नरक को कभी शर्म नहीं आती' के साथ ही शहर चुप नहीं है, कैक्टस और गुलाब, आज की हिंदी कविता, नवें दशक की हिन्दी कविता में शामिल हैं। जन नाट्य मंच रतलाम द्वारा उन्हें रंगकर्म के क्षेत्र में विशेष प्रयास के लिए 'सुमंगला स्मृति सम्मान' से सम्मानित भी किया गया। उनका निधन अप्रैल 2021 में 75 वर्ष की आयु में हो गया। अपने जीवन काल में और ख़ास तौर से रचना काल में उन्होंने आम आदमी के जनजीवन और उसकी ताक़त को बहुधा रेखांकित किया। वे इंसान को उसकी इंसानियत से पहचाने जाने और इंसान की शक्ति को महसूस करने की प्रेरणा देने वाले रचनाकार थे। 

अपने आज से 

उनके कल को मत पकड़ो 

भीतर से बाहर तक फैल रहे 

सदियों के अंधेरे को 

अपने दांतो से पकड़कर चीर देंगे 

धूल और पानी से भरी खेलती उनकी देह 

आकाश और पृथ्वी है।

अभी-अभी तो डूबा है सूरज 

सुनो और देखो 

उनकी हंसी किलकारियों को। 

कोई रचनाकार अपनी रचनाओं के ज़रिए सदियों तक जीवित रहता है। हरीश पाठक सर को वक्त ने हमसे ज़रूर छीन लिया है मगर उनकी रचनाएं हर वक्त से बतियाती रहेंगी, बुरे वक्त से सवाल करती रहेंगी और हर इंसान के कंधे पर हाथ रख उसे एक संबल देती रहेंगी।

आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर, बरबड़ रोड,
रतलाम - 457001 (म.प्र.)
मो. नं. 9827084966