नीर का तीर : सिस्टम का नाकारापन, लेखक और उसकी आत्मा का द्वंद्व
इस बार ‘नीर का तीर’ में मेरा और मेरी आत्मा का संवाद है। आप ही पढ़ कर बताइए कि मैं सही हूं या मेरी आत्मा।
नीरज कुमार शुक्ला
रतलाम । काफी अरसा बीत गया ‘नीर का तीर’ दागे हुए। सुधि पाठकों ने भी कहा कि बहुत दिनों से कोई तीर नहीं छोड़ा। त्योहारी सीजन और घर में चल रहे रिनोवेशन के अंतिम दौर के काम के चलते मामला आज-कल पर टलता रहा। स्थितियां सामान्य हुईं तो सोचा कुछ लिख ही डालूं।
रात के करीब 11.30 बज रहे थे। मैंने जैसे ही लिखना शुरू किया, कमरे में आहट हुई। आहट वाली तरफ नज़र दौड़ाई तो वहां अपने ही प्रतिबिंब को पया। बता दूं, कि उस जगह पर कोई आईना नहीं है। ‘खुद’ को सामने देख शरीर में सिहरन दौड़ गई।
‘डरो नहीं, मैं तुम्हारी आत्मा हूं।’ (दूसरी ओर से आवाज आई)
मेरी आत्मा... ? (मेरे मुंह से निकला)
हां, तुम्हारी आत्मा..., वैसे तुम इतनी रात को क्या कर रहे हो (आत्मा ने पूछा)
यह तो मेरा रुटीन है। मैं ‘नीर का तीर’ कॉलम लिखने की तैयारी कर रहा हूं, पर तुम यहां क्या कर रही हो...? (मैंने कहा)
आत्मा : अरे ! कुछ नहीं, बस यह बताने आई हूं कि चाहे जितने तीर दाग लो, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तुम्हारे तीर गेंडे की चमड़ी तो भेद सकते हैं, सिस्टम की चमड़ी नहीं। सिस्टम की चमड़ी इतनी मोटी है कि तीर उससे टकरा कर उल्टे तुम्हें ही चोटिल कर देगा।
मैं : ऐसा नहीं है। भ्रमित मत करो, यहां से जाओ और मुझे लिखने दो।
आत्मा : चली जाऊंगी..., चली जाऊंगी...। पहले यह तो बताओ कि, पूर्व में जिन मसलों को उठाया या जिनके बारे में लिखा, क्या वे अंजाम तक पहुंचे?
मैं : जैसे कि, कोई उदाहरण... ?
आत्मा : एक नहीं, अनेक हैं। अब अवैध और अवकसित कॉलोनी को ही ले लो। अगर पूरे जिले की बात करें तो ऐसी कॉलोनियों में तकरीबन 50 हजार लोग मूलभूत सुविधाओं के अभाव में नारकीय जीवन जी रहे हैं। बारिश में जाकर देखो, रूह कांप जाएगी।
मैं : हां, यह बड़ा मुद्दा है, लेकिन ऐसी कॉलोनियों के कॉलोनाइजरों पर पूर्व के कलेक्टर एफआईआर दर्ज करवा चुके हैं।
आत्मा : सही कहा, परंतु सिर्फ नवाबों की नगरी कहलाने वाले जावरा कस्बे में ही एफाईआर दर्ज हुईं थी। कुछ एक कार्रवाई स्वर्ण नगरी रतलाम में भी हुईं लेकिन वह पुलिस के रोजनामचे तक ही सीमित हैं।
आत्मा : याद है न एफआईआर दर्ज करवाने वाले कलेक्टरों के हस्र ? जमीनों के जादूगरों ने उन्हें ही जिला निकाला दिलवा दिया था। उनके बाद आए कलेक्टरों ने पहले वालों का हस्र जानने के बाद जेहमत ही नहीं उठाई कॉलोनाइजरों के गिरेबान में हाथ डालने की। अधीनस्थ तो वैसे ही कुछ भी करने रहे वह भी तब जबकि कॉलोनियों में अनियमितताओं वाली फाइलों पर कॉलोनाइजरों ने ‘वजन’ रख छोड़ा हो।
मैं : बेशक, अभी तक कुछ नहीं हुआ लेकिन सुना है कि 16 दिसंबर 2024 से शुरू होने वाले मप्र के विधानसभा सत्र के लिए इस मुद्दे को लेकर सवाल लग चुका है। सवाल भी सत्तापक्ष के जनप्रतिनिधि ने ही लगाया है। उन्हें संतुष्ट करने के लिए सरकारी महकमे को कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।
अत्मा : अच्छी बात है, लेकिन रतलाम शहर के उस स्कूल की जांच का क्या हुआ जहां एक मासूम बच्ची का यौन शोषण हुआ था?
मैं : उसमें तो आरोपित बाल अपचारी पर केस दर्ज हो गया था और उसे बाल संप्रेक्षणगृह भी भेज दिया गया था। स्कूल संचालक के विरुद्ध भी केस दर्ज हो चुका है।
आत्मा : यह सब तो हुआ लेकिन मजिस्ट्रियल जांच के आदेश भी तो हुए थे और एसपी ने एसआईटी भी गठित की थी। तब इसका खूब प्रचार हुआ था। मजिस्ट्रियल जांच के लिए तो 15 दिन की डेडलाइन दी गई थी।
मैं : हां, यह हुआ था...
आत्मा : ... तो फिर उस जांच का क्या हुआ ?, एसआईटी द्वारा चाही गई जानकारियों का क्या हुआ ? क्या किसी ने इनसे बारे में जिम्मेदारों से जानने की कोशिश की ?
आत्मा : एक मजिस्ट्रियल जांच रतलाम शहर में गणेश चतुर्थी वाली रात गणेश भक्तों पर हुई पुलिस की बर्बरता और उसमें घायल हुए युवक की मौत के मामले में भी शुरू हुई थी। उसका भी निष्कर्ष किसी ने नहीं बताया।
मैं : अनुत्तरित, सिर्फ आत्मा की ओर देखता रहा...
आत्मा : ऐसी जांचें और जांच कमेटियों का गठन जनता और मीडिया को शांत करने के लिए होता है जो समय बीतते ही फाइलों में दफन हो जाती हैं।
मैं : प्रशानिक जांचों का तो पता नहीं लेकिन पुलिस विभाग से जुड़ी जांचें तो अंजाम तक पहुंचेंगी, मौजूदा पुलिस कप्तान की हरफन मौला ‘कप्तानी’ पारी देखकर तो यह भरोसा किया ही जा सकता है।
आत्मा : मौजूदा पुलिस कप्तान कम्युनिटी पुलिसिंग के लिहाज से तो काफी बेहतर हैं, और वे उसमें काफी हद तक खरे भी उतरे हैं। वे हर मोर्चे पर खुद ही पहुंचते हैं ताकि विभाग के कामचोर और नगद नारायण के प्रभाव में आ चुके अधीनस्थों की जंग छुड़ा सकें, लेकिन सवाल यह है कि वे ऐसा करते हुए यहां कितने दिन तक टिक पाएंगे ?
मैं : ऐसा क्यों ?
आत्मा : क्या तुम्हें याद नहीं कि कलेक्टर हो या एसपी, जिसने भी ‘स्वहित’ से परे ‘जनहित’ के लिए कुछ भी करने का प्रयास किया तो उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेट कर यहां से जाना ही पड़ा। नगर निगम के पूर्व आयुक्त को ही देख लो, यहां दो कार्यकाल बिताने वाले आयुक्त को भी प्रतिकूल माहौल के चलते ही रतलाम छोड़ना पड़ा।
मैं : ऐसा सबके साथ हो, यह जरूरी तो नहीं।
आत्मा : सुनने में आया था कि मौजूदा कप्तान की ही एक कार्रवाई से सत्ता से जुड़े कतिपय लोग नाराज हो गए थे। यह नाराजगी कितनी जायज थी, यह क्षणिक थी या दीर्घकालिक है, यह दावे से नहीं कह सकते।
मैं : यह तो सुना था।
आत्मा : पिछले दिनों एक बैठक में पुलिस कप्तान ने थाना प्रभारियों को रसूखदारों से जुड़े लंबित प्रकरणों में जल्द से जल्द कार्रवाई करने की हिदायत दी थी, शोकॉज नोटिस भी जारी किए थे। सोचकर बताओ, इस हिदायत के बाद कितने रसूखदार सलाखों के पीछे पहुंचे? पीड़ित पक्ष के आवेदन पर आवेदन दिए जाने के बावजूद सभी छुट्टे सांड की तरह स्वच्छंद घूम रहे हैं।
मैं : पुलिस कप्तान ने आदेश दिया है तो वे फॉलोअप भी लेंगे ही... आज नहीं तो कल।
आत्मा : जिले के एक गांव में तालाब घोटाला हुआ है। पंचायत सचिव ने राशि का गबन हुआ है। जांच में संबंधित को दोषी भी पाया गया है। क्या उस पर कार्रवाई हुई ?
मैं : जांच करने वालों ने ईमानदारी से जांच की। सरकारी पैसे का दुरुपयोग करना पाया गया है। जिला पंचायत सीईओ ने दोषी पर कार्रवाई करने के लिए भी कहा गया है, और क्या चाहिए।
आत्मा : बस, इतना ही। सीईओ ने कार्रवाई का सिर्फ कहा है, कार्रवाई हुई तो नहीं अब तक। अरे ! कार्रवाई होगी भी कैसे, जब बचाने वाले ज्यादा दमदार हों तो दोषी ऐसे ही खुले घूमते रहेंगे। जहां आर्थिक हित जुड़ जाएं, वहां ज्यादा की उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए।
मैं : जांच हुई है और निष्कर्ष भी निकला है। कोई किसी को कब तक बचा लेगा, कार्रवाई तो एक न एक दिन होकर ही रहेगी।
आत्मा : तुम्हारा यह भरोसा कामय रहे। चलो, इन मामलों को छोड़ो और यह बताओ कि मेडिकल कॉलेज के पहले दीक्षांत समारोह में जिले के जनप्रतिनिधि (सांसद व विधायक) नदारद क्यों रहे?
मैं : अपनी-अपनी व्यस्तताओं के चलते नहीं आ पाए होंगे। मेडिकल कॉलेज की डीन का कहना है कि उन्होंने तो सभी को आमंत्रित किया था।
आत्मा : व्यस्तताओं के चलते नहीं, बल्कि वे उपेक्षा के चलते नहीं आए। दरअसल, डीन द्वारा सांसदों और विधायकों को इस समारोह में बतौर अतिथि नहीं, भीड़ जुटाने के लिहाज से ही आमंत्रण पत्र भेजे थे। यह जनप्रतिनिधियों को नागवार गुजरा। पता चला है कि कुछ जनप्रतिनिधियों ने डीन के इस कृत्य की उच्च स्तर पर शिकायत भी की है अथवा करने वाले हैं।
मैं : भला डीन जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा करेंगी ? इससे उनका क्या भला होगा ?
आत्मा : वह इसलिए कि वे जिस इंदौर शहर से आई हैं वहां के मेडिकल कॉलेज के डीन की कुर्सी पर उनकी नजर है। अभी जो इस कुर्सी पर काबिज हैं (जो पहले रतलाम में भी डीन रह चुके हैं) आगामी दिनों में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। अतः रतलाम की डीन जो भी कर रही हैं वह इंदौर की कुर्सी पर काबिज होने के लिहाज से ही कर रही हैं। संभव है कि जनप्रतिनिधियों की नाराजगी उनकी रतलाम से जाने की राह आसान कर दे।
मैं : तुम्हें तो बाल की खाल निकालने की आदत है। हर बात में नकारात्मकता ही खोजती हो। कभी तो सकारात्मक रह लिया करो। कभी-कभी लगता है कि तुम मेरी आत्मा हो भी या नहीं? एक बात जान लो कि कोई कुछ करे/कहे, कैसा भी हो... मैं सिस्टम के नाकारापन से हार मान कर लिखना बंद करने वालों में से नहीं हूं।
आत्मा : अरे… अरे... ! नाराज़ मत हो। मुझे पता है कि तुम किसी के कहने से भी मानोगे नहीं फिर सचेत करना मेरा फर्ज है। मुझे जो कहना था, कह दिया। अब तुम्हें जो करना/लिखना है वह करो/लिखो। मैं तो चली... गुडनाइट।
अपनी बात
‘नीर का तीर’ में लिखने के लिए तो बहुत कुछ है, लेकिन मेरी आत्मा ने मुझसे जो कहा वह भी गलत नहीं है। इसलिए दिमाग का दही हो रहा है। आत्मा से इस साक्षात्कार ने दुविधा में डाल दिया है नए तीर दूंगा या नहीं ? जब तक इस दुविधा बरकरार है तब तक मेरा और मेरी आत्मा का यह संवाद ही पढ़ लीजिए। पसंद आए तो औरों तक भी बढ़ा दीजिए। अगर पसंद नहीं आए तो कमेंट बॉक्स में अथवा वाट्सएप नंबर पर प्रतिक्रिया जरूर दीजिए। आपकी प्रतिक्रिया ही सुधार के लिए प्रेरित करती है।
नीरज कुमार शुक्ला