शुक्र है... एक सुपारी, सब पर भारी

साप्ताहिक व्यंग्य शृंखला ‘शुक्र है...’ में पढ़ें सुपारी के प्रकार और जिंदगी में इसका महत्व।

शुक्र है... एक सुपारी, सब पर भारी
शुक्र है... एक सुपारी - सब पे भारी

आशीष दशोत्तर 

अब सुपारी सिर्फ़ सुपारी नहीं रही। वह अपने नाम और रसूख़ का बहुत विस्तार कर चुकी है। अपने आकार और प्रकार में कई तब्दीलियां कर चुकी है। अब सुपारी छोटी भी है और बड़ी भी। छोटी सुपारी के आशय छोटे हैं और बड़ी के बड़े। हर सुपारी के मतलब अलग निकाले जाते हैं।

इस सुपारी के लंबे और मुश्किल भरे सफर पर नज़रें तो घुमाइए। हर बड़े आदमी की सफलता के पीछे एक न एक सुपारी खड़ी मिलेगी। छोटी उम्र तक आदमी सिर्फ़ पूजा की सुपारी से ही परिचित होता है। स्कूल के दिनों में मीठी सुपारी अक्सर उसकी जेब में पाई जाती है, जो कॉलेज तक आते-आते पान वाली सुपारी में बदल जाया करती है। यही समय होता है जब वह चिकनी सुपारी, चिप्स सुपारी, कतरन सुपारी, छीलन सुपारी जैसे कई विचित्र प्रकारों से परिचित होता है। उसे यहीं आकर मालूम होता है कि इंसान ठान ले तो उसके लिए लचीला या कठोर कुछ नहीं होता। वह कुछ भी और कैसे भी कर सकता है। कठोर से कठोर चीज़ को भी इंसान कई शक्लों में ढाल सकता है। सुपारी इसका जीता जागता प्रमाण है। समय के साथ उसका बचपन ही नहीं, सुपारी जैसी एक छोटी सी चीज़ भी कितने ही रूपों में तब्दील हो जाया करती है।

एक सुपारी का इतना बड़ा संसार उसके सामने जब आता है तो वह तय नहीं कर पाता है कि उसे किस सुपारी के साथ रहना है। वह असमंजस में होता है लेकिन सुपारी नहीं। वह सुपारी को मुंह लगाने की हिम्मत नहीं कर पाता लेकिन सुपारी उसके मुंह लग जाया करती है। एक बार जो सुपारी उसके मुंह लग जाए, वह उम्रभर उसका साथ नहीं छोड़ती। उसके चाहने पर भी सुपारी उसके मुंह का साथ कभी नहीं छोड़ती। उसकी बत्तीसी के सिंहासन पर विराजमान हो जाती है। धीरे-धीरे उसके मुखमंडल के बीच इतना महत्वपूर्ण स्थान कायम कर लेती है कि उसकी बत्तीसी को बाहर निकाल कर ही दम लेती है। बत्तीसी हिलने से लेकर निकलने तक के सफर में उसका सुपारी से संघर्ष जारी रहता है।

इस बीच जब वह जीवन पथ पर कदम रखता है तो एक ख़ास तरह की सुपारी से उसका सामना होता है। यह ऐसी सुपारी होती है जो ली भी जाती है और दी भी जाती है। चूने-कत्थे की दुनिया से निकलकर सुपारी की इस अजीब दुनिया में उसका प्रवेश जब होता है तो यहां सिर्फ़ सुपारी ही सुपारी नज़र आती है और कुछ नहीं।

किसी ज़माने में सुपारी देना बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, मगर यह अब हर दिन सुपारी दी जा रही है। हर कोई एक-दूसरे की सुपारी देने के लिए बेताब दिखता है। सुपारी देने की होड़ सी लगी रहती है। ज़रा सा कोई तेज़ चला तो समझो उसकी सुपारी किसी ने दी। सुपारी लेने वाले तो जैसे कदम-कदम पर खड़े मिलते हैं। सुपारी देने वालों की इतनी उत्सुकता को देखते हुए सुपारी लेने वालों की तो पौबारह होने लगी है। वे एक ही समय कितनों की ही सुपरियां ले लिया करते हैं। इनका धंधा खूब चल रहा है। कभी मंदी नहीं। कभी घाटा नहीं। कोई उधारी नहीं। कोई बकाया नहीं। लेन-देन का कोई चक्कर नहीं। हिसाब-किताब का कोई टोटा नहीं।

ईमानदारी के साथ कोई समझौता नहीं। काम में किसी तरह की ढिलाई नहीं। सब कुछ साफ़ और समय पर। एक यही धंधा है जो निरंतर विकास का पर्याय बना हुआ है। सुपारी लेने वालों ने आज तक कभी किसी मुआवजे की मांग नहीं की। यही उनके सशक्तिकरण का प्रतीक है। सुपारी लेन-देन जैसे धंधे तो निरंतर विकसित होना चाहिए। सरोते से सुपारी काटते-काटते कई हाथों में अभाव की लकीरें गाढ़ी हो गईं, मगर सुपारी लेने वालों के हाथों में रत्न जड़ित अंगूठियों के लिए उंगलियां कम पड़ रही हैं। एक सुपारी की पहुंच कहां से कहां तक हो गई है।

आशीष दशोत्तर

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