मैं रतलाम का पोलो ग्राउंड (नेहरू स्टेडियम) हूं, मुझे ‘अक्षय’ रखने की जिम्मेदारी आप की है, आप मुझ पर खेलिए या मुझसे खेलिए, मर्जी है आपकी

पेश है रतलाम के पोलो ग्राउंड (नेहरू स्टेडियम) का दर्द उसी की जुबानी। आप इसे भड़ास भी कह सकते हैं। अब यह 'दर्द' महसूस होता है या 'भड़ास' यह तो इसे पढ़ने के बाद ही स्पष्ट होगा। इसलिए इच्छा न भी हो तो भी एक बार पढ़ ही लीजिए...

मैं रतलाम का पोलो ग्राउंड (नेहरू स्टेडियम) हूं, मुझे ‘अक्षय’ रखने की जिम्मेदारी आप की है, आप मुझ पर खेलिए या मुझसे खेलिए, मर्जी है आपकी
पोलो ग्राउंड (नेहरू स्टेडियम), रतलाम।

नीरज कुमार शुक्ला 

मैं रतलाम का पोलो ग्राउंड (अब नेहरू स्टेडियम) हूं...। जी हां, मैं वहीं पोलो ग्राउंड हूं जहां रतलाम राज्य के तत्कालीन शासक पोलो खेला करते थे। इसलिए ही मुझे लोग पोलो ग्राउंड कह कर बुलाते हैं। कालांतर में मेरे ऊपर देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के नाम पर नेहरू स्टेडियम लिखवा दिया गया। देश के महान क्रिकेटर सुनील गावस्कर के नाम पर मेरे पैवेलियन का नाम भी रहा। आप कहेंगे यह सब तो इतिहास के पन्नों पर पढ़ चुके हैं। सही बात है, मैं और मेरी ये पहचान इतिहास ही तो है जो सिर्फ पन्नों में दफन होने के लिए ही तो होता है। शायद कतिपय लोग इसी पर अमल करते हुए मेरे अस्तित्व का ‘क्षय’ करने पर आमादा हैं। ये वही लोग हैं जिन पर मुझे ‘अक्षय’ (सदा बना रहने वाला  / अविनाशी / अमर) रखने की जिम्मेदारी है।

(बच्चों और खिलाड़ियों का इस तरह खेलता देखकर अच्छा लगता है)

कहने को तो मैं खेल मैदान ही हूं लेकिन कभी-कभी मेरे प्रति लोगों के आचरण को देख कर यह कोरा भ्रम ही जान पड़ता है। मुझ पर बच्चे और युवा खेलें, बुजुर्ग वर्जिस करें और सुबह-शाम की सैर करें तो मेरा तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है लेकिन जब मेरे अस्तित्व से ही खेल होने लगता है तो बहुत पीड़ा होती है। दुःख होता है जब आयोजनों के नाम पर जब मेरी सूरत और सीरत बिगाड़ने से तक से लोग गुरेज नहीं करते।

(ऐसा कुछ हो तो भी अच्छा लगता है, क्योंकि इससे मेरी छाती चौड़ी होती है, छलनी नहीं होती)

किसी के लिए अपनी सामाजिक / राजनीतिक / व्यवसायिक दुकान चमकाने का स्थल हूं तो किसी के लिए अपना रौब और रुतबा दिखाने का जरिया। ऐसे लोग मुझे मयखाना और कचरा डम्पिंग स्थल बनाने से भी बाज नहीं आते। प्रायः अपने हित साधने के लिए होने वाले आयोजनों के बाद पानी के पाउच, पानी की खाली बोतलें, पतंग बनकर जहां-तहां उड़ते कागज और शराब की खाली बोतलें ही नजर आती हैं।

(कोई मेरे अस्तित्व के साथ ऐसा करे तो अच्छा नहीं लगता, मुझे भी और मेरी खातिरी चाहने वालों को भी)

क्रिकेट के लिए स्टम्प, अन्य खेलों की नेट बांधने के लिए पाइप गाड़े जाते हैं तब मेरी छाती चौड़ी हो जाती है इस उम्मीद से कि यहां खेलने वाले और प्रैक्टिस करने वाले खिलाड़ियों में से ही कोई नमन ओझा बनेगा तो कोई आशुतोष। कोई कृतज्ञा शर्मा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर दौड़ते हुए भारतीय परचम (तिरंगा) लहराएगी। इसके उलट ही जब जब शामियाने तानने के लिए बड़े-बड़े पाइप गाड़ दिए जाते हैं तो मेरी झाती झलनी-झलनी हो जाती है। इतना तक तो मैं झेल ही लेता हूं लेकिन जब यहां खेलने या फिजिकल फिटनेस के लिए यहां आने वालों को मेरी दुर्दशा देखकर जो तकलीफ होती है, वह बर्दाश्त नहीं होती।

(ऐसा तो कतई अच्छा नहीं लगता। अगर लोग चाहते हैं कि मेरा अस्तित्व इतिहास के पन्नों में दफन होकर न रह जाए तो आयोजन करने वालों को आयोजन के पश्चात मेरी दुर्दशा न हो, यह जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। यह चित्र आज दिनांक 16 फरवरी, 2025 की सुबह का

कभी-कभी तो लगता है कि खुद ही खुद को मिटा लूं या फिर जो लोग मेरी सलामती की ख्वाइश रखते हैं, जो इसके लिए दुआ करते हैं या प्रयास करते हैं, उन सभी से चिल्ला-चिल्ला कर कहूं, कि- आप भी आइये और मेरी छाती पर मूंग दलिए और चलते बनिए। बच्चों, खिलाड़ियों और फिट रहने की चाह में मेरे जैसे मैदान तलाशने वालों का क्या है, वे तो अपने-अपने घरों की छतों (यदि कहीं बची हो तो) पर भी खेल / टहल लेंगे। अगर यह भी संभव नहीं हुआ तो कुछ इंच लंबे और चौड़े मोबाइल फोन की स्क्रीन रूपी मैदान पर अपनी उंगलियों से खेल लेंगे। 

डिस्क्लेमर

मेरी इस भावना का हाल के दिनों में हुए आयोजन और की गई मेरी दुर्गशा से कोई सरोकार नहीं है। यह तो सिर्फ मन की भड़ास थी, सो निकाल दी। आप तो अपने हाल में रहिए, जैसा चाहें उस हाल में मुझे रखिए। मेरा क्या है, एक दिन मैं भी इतिहास के पन्नों में दफन हो जाऊंगा और लोग उसे पढ़ कर कह दिया करेंगे- ‘एक था पोलोग्राउंड (नेहरू स्टेडियम) !’