महिला अधिकार, सुरक्षा और समाज : सोच नहीं बदली तो सिर्फ एक शब्द बनकर रह जाएगा ‘परिवार’

यह आलेख लड़कियों की सोच में बदलाव की पैरवी करता। जानिए, एक युवा लेखिका का इस सोच के पीछे क्या है क्या है उद्देश्य।

महिला अधिकार, सुरक्षा और समाज : सोच नहीं बदली तो सिर्फ एक शब्द बनकर रह जाएगा ‘परिवार’
गरिमा सोनी।

गरिमा सोनी 

16 दिसंबर, 2012 में हुए दिल्ली के निर्भया रेप केस के बाद मुझे जब-जब मौका मिला, मैंने हर बार महिलाओं की सुरक्षा और शिक्षा की बात की है। गहराई से जब-जब सोचती हूँ, एक डर सा लगता है कि यह कैसा दौर है..., इतनी हैवानियत कहां से आती है ? वैसे बात सिर्फ इस दौर की नहीं है। द्रौपदी, सीता, या फिर निर्भया और अंकिता, शायद ही ऐसा कोई दौर हुआ होगा जब महिलाओं के प्रति समाज का रवैया पूरी तरह ठीक रहा होगा। पर आज मैं समाज के नहीं बल्कि महिलाओं/लड़कियों के रवैये की बात करने वाली हूँ। 

समय के साथ महिलाओं की सुरक्षा का तो नहीं पता, पर शिक्षा का स्तर ज़रूर बदला है। अब महिलाओं को पढ़ने और नौकरी करने में पहले की तुलना में ज़्यादा रोक-टोक नहीं होती है। महिलाएँ आज अपने अधिकारों को जानती हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ती भी हैं। आज महिलाओं की अपनी सोच, अपने विचार और अपने सपने भी हैं। 

सपनों से याद आया, ज़्यादातर लड़कियाँ बचपन से ही अपनी शादी का सपना देखती हैं। कैसा लड़का होगा ? कैसी शादी होगी ? पहले के समय में यह चिंता होती थी कि ससुराल में कैसे अपने फ़र्ज़ निभाऊंगी ? आज चिंता होती है प्री-वेडिंग शूट कहां करूंगी ? शादी धर्मशाला में होगी या किसी अच्छी डेस्टिनेशन पर ? शादी के बाद घूमने कहां जाएंगे...? अगर इंडिया में गए तो उस फ्रैंड को क्या मुंह दिखाऊंगी जो अपने पति के साथ मालदीव्स गई थी...? चलो भले ही इंडिया में चली जाऊंगी पर कम से कम फ्लाइट में तो ले जाए हसबैंड, ताकि मायके में इज़्ज़त रह जाए। आपको जान के आश्चर्य होगा कि यह लिस्ट यही नहीं रुकती। करवा चौथ पे क्या मिलेगा ? फर्स्ट एनिवर्सरी कहां मनाएं ? ऐसे सवालों और जिज्ञासाओं की लंबी फेहरिश्त है। 

क्या अपने सपनों की लिस्ट होना कोई बुरी बात है ? बिल्कुल नहीं, हर इंसान के सपने होने चाहिए क्योंकि हमारे सपने ही हमारे जीने का मकसद बन जाते हैं। बस एक बात समझ में नहीं आती... जब सपने आपके हैं तो कोई और क्यों उन्हें पूरा करे ? अपनी खुशियों और ख्वाइशों के बीच का फ़र्क हम क्यों भूल जाते हैं ? मेरा मतलब यह नहीं है कि हसबैंड को वाइफ़ के लिए कुछ नहीं करना चाहिए। मतलब सिर्फ इतना है कि अपने सपनों का बोझ अपने पापा या पति पे नहीं डालना चाहिए। कौन पति जानबूझ कर बीवी को दुखी रखना पसंद करेगा ? कौन पिता अपनी बेटी की शादी अच्छी नहीं करना चाहेगा ? पर लड़कियों को समझना ज़रूरी है कि मूवीज़ में जो शादियाँ और मैरिड लाइफ दिखाते हैं, वो वास्तविकता नहीं है। अगर अपने अधिकार के लिए लड़ने में सक्षम हो तो अपनी ज़िम्मेदारियों को भी निभाओ। अगर कुछ पाने की इच्छा रखती हो तो कुछ खोने की भी हिम्मत रखो। 

मेरी सभी लड़कियों से रिक्वेस्ट है कि शादी को कोई जैकपॉट या लॉटरी न समझें। शादी को ३-४ दिन का इवेंट समझना बंद करें। शादी को कोई जादू मत समझें, बल्कि परिवार को बांध के रखने की एक खूबसूरत ज़िम्मेदारी मानें। अपने सपनों को पूरा करने में अगर किसी घर के, किसी माँ-बाप के, किसी बेटे के सपने तोड़ दिए तो भले ही आपको खुशी मिल जाए पर साथ में एक शर्मिंदगी भी मिलेगी जो आपको आपकी खुशियों से दूर कर देगी। 

मैं नहीं बोल रही हूँ कि ज़ुल्म सहो, मन मारते रहो, त्याग की देवी बन जाओ। सिर्फ इतना मानना है कि शादी अच्छी करने से ज़्यादा शादी को अच्छे से निभाने की कोशिश करो। रील्स में अच्छे दिखने से ज़्यादा रियल में अच्छे रहने पे फोकस करो और फिर देखो क्या मज़ा आता है परिवार के प्यार का।

यह जो भी बोला है, वो सब हर लड़की के लिए नहीं है। बस यह उनके लिए है जो दिखावे में उलझ कर अपने रिश्ते ही उलझा लेती हैं। फिर उन्हें ना किसी के साथ रहके शांति मिलती हैं और ना अकेले रह के। समाज सोच से बनता है और बढ़ता है, लड़कियों को अपनी सोच सही करने की बहुत ज़रूरत है, वरना परिवार शायद केवल एक शब्द ही रह जाएगा।

(गरिमा सोनी पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, लेखिका, ब्लॉगर हैं। मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन के साथ ही यूथ आईकॉन पुरस्कार से पुरस्कृत हैं और "LIFE SIMPLIFIED" पुस्तक की लेखिका हैं।)