नीर का तीर : ‘मुर्दों’ के शहर में ‘धृतराष्ट्रों’ की हुई ‘पौ बारह’, कहीं दिल के अरमां आंसुओं में बह गए तो कहीं हवाई किले फूंक मारने से ढह गए

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नीर का तीर : ‘मुर्दों’ के शहर में ‘धृतराष्ट्रों’ की हुई ‘पौ बारह’, कहीं दिल के अरमां आंसुओं में बह गए तो कहीं हवाई किले फूंक मारने से ढह गए
नीर का तीर।

नीरज कुमार शुक्ला

(कु)व्यवस्थाओं से अविचलित और (अ)सुविधाओं से जूझते हुए भी चुप रहने वाले रतलामियों की वजह से कुछ लोग रतलाम को मुर्दों का शहर कहने से नहीं चूकते। जहां सिर्फ माल ही नहीं, जान भी चली जाए तो किसी को तनिक फर्क नहीं पड़ता हो वहां ‘खुली आंख वाले धृतराष्ट्रों’ की ‘पौ बारह’ होना तय ही है। ऐसे ‘धृतराष्ट्र’ राजनीति में भी हैं और सरकारी महकमे में भी। इनकी गेंडे जैसी खाल पर न तो सड़क धंसने के कारण मजदूर की मौत होने से सिहरन होती है और न ही सांड के उत्पात से किसी की जान जाने से। ऐसे दिलदहला देने वाले हादसों से जमीन में दस गज नीचे दफन मुर्दे की रूह भले ही कांप जाए लेकिन हर हाल में ‘जिंदा लाशों’ की तरह मदमस्त रहने वाले टस से मस तक नहीं होते।

अरे ! ओ सरकारी सिस्टम के निष्क्रिय निकम्मों, किसी को कुछ भी हो जाए लेकिन तुम टीवी पर दिखाए जाने वाले ‘फाइव स्टार चॉकलेट’ के विज्ञापन के मुख्य किरदार की तरह ही कुछ मत करना, सिर्फ चॉकलेट चबाते रहना अथवा भैंस की तरह पगुराते रहना। अगर मुर्दा अपना भला चाहेगा तो वह खुद-ब-खुद उठ बैठेगा। जिस तरह तुम्हारी आत्मा मर चुकी है, जमीर सड़ चुका है, वैसे ही सभी को मर जाने देना, संवेदनाओं को सड़ जाने देना।

एक बात जनता के उन नुमाइंदों (जिन्हें खुद जनता ने ही अपनी अनदेखी के लिए चुनाव है), से भी कहनी है, कि- आपको भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। जनता को यह भ्रम है कि उसने आपको अपने हितों के रक्षण / संरक्षण के लिए चुना है। शायद उन्हें यह नहीं पता है कि उन्होंने तो आपको सरकारी सुविधाओं का भक्षण करने का लाइसेंस दिया है। इसलिए आप बेफिक्र होकर निष्क्रियता रूपी सांड को लोगों के घरों के चिराग बुझाने दीजिए और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते रहिए। अभी हुआ ही क्या है, सांडों ने चार महीने में सिर्फ दो ही तो जाने ली हैं। चार महीने पहले एक परिवार का बुजुर्ग छीन लिया था और आज एक बुजुर्ग दंपति से उसके बुढ़ापे का सहारा। हां, एक बात और याद रखिएगा, कि- समय (अच्छा भी और बुरा भी) तो सब का आता है, आज हमारा समय आया है तो तो कल आपका भी आ सकता है।

...और दिल के अरमां आंसुओं में बह गए

राजनीति के अंधों को हर वक्त ‘अवसर’ की तलाश रहती है फिर चाहे वक्त अच्छा हो या बुरा। कुछ समय पूर्व तक कतिपय ‘राजनीतिक अंधों’ की महात्वाकांक्षाएं बल्लियों उझल रही थीं। यह वह दौर था जब नगर सरकार के मुखिया गंभीर बीमारी से ग्रस्त होकर उपचाररत थे। कहते हैं कि अच्छे और बुरे की पहचान ऐसी विपत्ति के समय होती है। यह बात इस दौरान भी देखने को मिली। सद्भावना रखने वाले लोग नगर सरकार के मुखिया के स्वस्थ होने की प्रार्थनाएं करने लगे तो ‘अवसरवादी’ और ‘महात्वाकांझी’ बिल्ली के भाग से छींका फूंटने की (ईश्वर न करे किसी अन्य के साथ ऐसा हो)। यह बात दीगर है कि, स्वस्थ होने की प्रार्थनाएं तो स्वीकार हो गईं लेकिन छींका फूटने की आस चकनाचूर ही होनी थी, सो हो गई।

डायरी से ख़ौफज़दा ख़ाकी

जिले के खाकी वाले महकमे में उस समय खुशी की लहर दौड़ गई जब उनके तत्कालीन कप्तान (मुखिया) का तबादला हुआ। खाकी वालों को उम्मीद थी कि कप्तान के साथ ही ‘साप्ताहिक डायरी’ वाला भूत भी चला जाएगा। ईश्वर से भी नहीं डरने वाले कतिपय खाकी वाले भी इस ‘साप्ताहिक डायरी’ से भयभीत थे, अतः उनकी खुशी स्वाभाविक भी थी, हालांकि वह क्षणिक साबित हुई। नए कप्तान ने जैसे ही अपनी प्राथमिकताएं गिनाते हुए अपने पत्ते खोले और ‘साप्ताहिक डायरी’ व्यवस्था पहले से भी ज्यादा सख्ती से लागू करने की बात कही तो अधीनस्थों की खुशी काफूर हो गई। अब सारे खाकी वाले अपनी डायरी सुधारने और नए कप्तान के सामने अपनी छवि निखारने की कोशिश में जुट गए हैं। अचानक ही उनका मुखबिर तंत्र भी मजबूत हो गया है और उनके चश्मे से अपराध और अपराधी भी साफ-साफ नजर आने लगे हैं।