कलेक्टर के नाम ‘रतलाम की आत्म’ का पैगाम... साहब, यह आपने क्या कर दिया, बर्रैया के छत्ते में हाथ क्यों डाल दिया ? अब सारी बर्रैया आपके पीछे पड़ जाएंगी !
यह है 'रतलाम की आत्मा' का पैगाम कलेक्टर के नाम है। इसे पढ़ कर कमेंट बॉक्स में प्रतिक्रिया जरूर दें।
नीरज कुमार शुक्ला
श्रीयुत् राजेश बाथम साहब (कलेक्टर, रतलाम)। सादर नमस्कार।
महोदय,
आप सोच रहें होंगे कि आखिर मुझे क्या हो गया जो मैं इस तरह आपको पत्र लिख रहा हूं। मैं बता दूं कि, यह पत्र मेरी ओर से नहीं, बल्कि ‘रतलाम की आत्मा’ का एक पैगाम है जो उसी के अनुरोध पर आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं। जी, हां ! आपने सही पढ़ा, मैंने ‘रतलाम की आत्म’ ही लिखा है।
दरअसल, हुआ यूं कि बीती रात मेरे सपने में ‘रतलाम की आत्मा’ आई थी। काफी बेचैन और हड़बड़ाई हुई थी। कह रही थी, ‘कलेक्टर साहब नए हैं, उन्हें रतलाम में आए ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। इसलिए अभी तक ठीक से परिचित नहीं हूं। आप तो पत्रकार हैं, आपको तो वे जानते ही होंगे, मेरा पैगाम उन तक पहुंचा दीजिए।’ पहले तो मैंने टालने का की कोशिश की लेकिन जब वह नहीं मानी तो उसकी मदद के लिए हामी भर दी।
कोरे आश्वासनों के तले दबी ‘रतलाम की आत्मा’ ने न जाने किस उम्मीद के साथ मेरा आश्वासन भी झेल लिया। उसने बताया कि- ‘मैंने सुना है कि कलेक्टर साहब ने वर्ष 1956-57 के भू-अभिलेख में दर्ज शासकीय भूमि को लेकर अधीनस्थों से रिपोर्ट तलब की है। इन भूमियों के स्वीकृत और अस्वीकृत नामांतरण तक की जानकारी भी मांगी है। शायद, किसी ने उनसे कह दिया है कि पूर्व में जो शासकीय भूमि थी, वह जमीनों की जादूगरी में महारथ लोगों की कलाकारी से अब निजी हो चुकी है। अब जिसने भी उन्हें यह जानकारी दी है, उसका इसके पीछे क्या उद्देश्य या हित है, यह तो वही जाने लेकिन यह जानकारी ‘रतलामी सोने’ की ही तरह बावन तोला पाव रत्ती है।’
मैंने पूछा, ‘कलेक्टर द्वारा यह जानकारी मांगने से तुम्हें क्या तकलीफ है?’ रतलाम की आत्मा ने कहा- ‘अरे, तकलीफ मुझे क्यों होने लगी। इससे तो रतलाम और रतलामवासियों का ही भला होगा। मुश्किल तो उन्हें होगी जिनके पैरों तले से जमीन खिसक सकती है। मुझे तो कलेक्टर साहब का यह कदम बर्रैया के छत्ते में हाथ डालने जैसा प्रतीत हो रहा है।’ सो कैसे ? मैंने पूछा।
रतलाम की आत्मा ने कहा- ‘आप तो जानते ही हैं कि यहां के जमीनों के जादूगर जमीन हथियाने के लिए एक-दूसरे को काटने से नहीं चूकते। वे इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं। वही जब उन पर कोई मुसीबत / मुश्किल आती है तो उसे टालने के लिए ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ बन जाते हैं। वे उनके पैरों के तले की जमीन खिसकाने या सोचने वाले की ही जमीन बदलने (देश निकाला देने) के लिए हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं, जैसे छत्ते में हाथ डालने पर बर्रैया पीछे पड़ जाती हैं।’
‘इतिहास गवाह है कि, यहां जब भी किसी ने लोकहित या रतलाम हित को सर्वोपरि रख कर ऐसा कुछ भी करने का प्रयास किया है तो उसे यहां से जाना ही पड़ा है। यकीन न हो तो जो साहब पहले यहां थे, उनसे पूछ लो। उन्होंने भी कुछ कबरबिज्जुओं पर नजरें टेढ़ी की तो सारे कबरबिज्जुओं ने मिल कर उन्हें ही निपटा दिया। बीते तीन दशक में ऐसा कईयों के साथ हो चुका है।’
‘यह दीगर बात है कि इस दौरान कुछ ऐसे लोग भी आए जिन्होंने इसे अवसर माना और सबका साथ – सबका विकास की सोच से परे ‘लोकहित’ को बला-ए-ताक पर रख कर स्व-हित साधना ही उचित समझा। ऐसे लोग यहां के दौलत-रामों को खूब भाए और उनकी पारियां भी लंबी रहीं। यहां के दौलत-राम नई घोड़ी नया दाम वाली स्थिति से निबटने के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं और इस कोशिश में रहते हैं कि दाम कुछ भी लग जाए, उनका काम न रुकने पाए। आप ही ने तो बताया था कि कई वर्ष पहले एक भू-माफिया ने आप से कहा था कि आप लोग जो खबरें लिखते हैं, उससे होता जाता कुछ नहीं। सिर्फ जिम्मेदारों तक पहुंचाई जाने वाली अटैची का आकार जरूर बढ़ जाता है! (मैंने सिर हिलाकर सहमति जताई)’
रतलाम की आत्मा की बात जारी रही... ‘मुझे याद आ रहा है कि मौजूदा कलेक्टर साहब को रतलाम आए कुल जमा 36 दिन (11 मार्च से 15 अप्रैल) ही हुए हैं और उन्होंने इतने कम दिनों में जमीनों के जादूगरों से 36 का आंकड़ा बनाने की ठान ली। डर है कि इससे कहीं रतलाम में उनकी भी पारी जनहित के बारे में सोचने वाले अन्य कलेक्टरों की तरह छोटी न रह जाए। वैसे मेरी तो यही दुआ है कि उनकी यहां उनकी पारी लंबी चले (जिसकी उम्मीद कम ही है) और सरकारी से निजी हो चुकी जमीनों को फिर से सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज करवाने (नामुमकिन काम) के साथ ही जनहित के कुछ और काम भी कर पाएं।’
‘रतलाम की आत्मा’ के अनुसार ऐसे भी चल सकती है लंबी पारी
- जमीनों के जादूगरों से दूर रहें, वे जो कर रहे हैं या करना चाह रहे हैं, उन्हें स्वच्छंद होकर करने दें। वे चाहे सिविक सेंटर निगल जाएं या फिर रणजीत विलास पैलेस अथवा कलेक्टोरेट। अब तो जबलपुर में एसपी कार्यालय की रजिस्ट्री करवाने वाला समदड़िया समूह भी रतलाम तक आ पहुंचा है।
- सेवा, सोना, साड़ी और स्ट्राबेरी की तरह प्रसिद्ध और सट्टे की तरफ तो आंख उठा कर के नहीं देखना चाहिए। सट्टा यहां का प्रमुख खेल है और उससे कई बेरोजगारों का परिवार पलता है। इस वजह से ही इस खेल में अनेक प्रतिष्ठित लोग तन-मन-धन से जुड़े हैं।
- राशन माफिया को भी न छेड़ें। गरीबों के नाम पर आने वाले राशन से सिर्फ दुकानदारों ही नहीं, कई सफेदपोश और उनके अट्ठे-पट्ठे भी पल रहे हैं। गरीबों को नुकसान हो जाए तो चलेगा, राशन माफिया को कुछ नहीं होना चाहिए। अगर उनके राजनीतिक आका जाग गए तो फिर आप जानो।
- रतलाम नगर महानगर बन रहा है। इसलिए अगर कहीं कोई विकास कार्य (सड़क या पुल) वर्षों या महीनों से रुका हुआ है तो उसे चालू करवाने का जोखिम नहीं उठाएं। बेशक इससे लोग परेशान हो रहे हों या फिर मर ही क्यों न जाएं, काम यूं ही रुका रहने दें। उम्मीद है कि अगले विधानसभा चुनाव से पहले तो काम हो ही जाएगा।
- यहां के कतिपय ब्याजखोर पुलिस और प्रशासन के लिए सर्वोच्च सम्माननीय व प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। अगर आपके समक्ष या जनसुनवाई में इसे लेकर किसी ने कोई शिकायत की हो तो उसे रद्दी की टोकरी में डाल दें, पुलिस विभाग और जनसुनवाई की शिकायतों के मामले में नगर निगम भी ऐसा ही करता है।
- बेशक, आप जिले के कलेक्टर हैं लेकिन नगर निगम के कार्यों या कार्यप्रणाली में कतई दखल न दें, क्योंकि यहां का हर अफसर और कर्मचारी अपने आप में कलेक्टर है। जब वे जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों को ठेंगा दिखा देते हैं, तो फिर आप ठहरे उन्हीं की तरह एक अफसर।
- अवैध और वैध कॉलोनियों से भी दूर ही रहिए क्योंकि इन्हें विकसित करने वाले समुद्र में डूबे हिमखंड की तरह हैं जो ऊपर सिर्फ 25 फीसदी नजर आते हैं शेष 75 फीसदी अंदर हैं। यानी आप उन्हें देख कर उनकी ताकत का अंदाजा नहीं लगा सकते। उन पर कार्रवाई के चक्कर में आप भले ही प्रभावित हो जाएं, उनका बाल तक बांका नहीं होगा। कुछ तो एफआईआर के बाद भी खुले घूम रहे हैं।
- बसों और अन्य वाहनों की ओवरलोडिंग को भी सर्वथा नजरअंदाज करें। अगर आप RTO पर नकेल कसने की सोच रहे हैं तो ऐसा न करें क्योंकि वे अमरौती खाकर आए हैं जिससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। यकीन न हो तो कोशिश कर के देख लें, गुना-ग्वालियर तक फोन घनघना जाएंगे।
- रतलाम में स्थायी, अस्थायी अतिक्रमण पर कार्रवाई करना तो पापा है। जिसने भी यह पाप किया उसके लिए यह अभिशाप है। आपने भूले से भी इन्हें छू लिया तो तमाम अतिक्रमण प्रेमी ही नहीं, उनके राजनीतिक आकाओं का भी खून खौल जाएगा।
- शहर का यातायात सुधारने के प्रयास भी आपके पहले वाले यहां रह चुके अनेक कलेक्टर साहबन कर चुके हैं, लेकिन मजाल है यह सुधर जाए। शहर का यातायात वह कुत्ते की पूछ है जिसे सीधा करने के प्रयास में न जाने कितने ही सिधार गए। इसलिए, आप भी इस संक्रामक बीमारी से बच कर ही रहिएगा, यातायात पुलिस और उसके मुखिया की तरह।