नीर-का-तीर : आश्वासनों के सैलाब पर चुनाव की नाव और बरसाती व चुनावी मेंढकों की टर्र-टर्र

यह बात विज्ञान सम्मत है कि पानी की अतिसूक्ष्म छिद्र से काफी दबाव के साथ गुजारा जाए तो वह सबसे कठोर हीरे को भी काट सकता है। इसलिए आप ही तय कर सकते हैं कि इस ‘नीर का तीर’ किस हद तक भेद पाने में सफल रहा। इसी अपेक्षा के साथ चुनावी और बरसात के इस मौसम में पढ़िए नीर का तीर।

नीर-का-तीर : आश्वासनों के सैलाब पर चुनाव की नाव और बरसाती व चुनावी मेंढकों की टर्र-टर्र
नीर का तीर।

नीरज कुमार शुक्ला

रतलाम । बधाई हो, मानसून सक्रिय हो गया और चुनाव का मौसम भी आ गया है। चार साल से भी ज्यादा लंबे चले उम्मीदों के अकाल के बाद अचानक ही आश्वासनों की मूसलधार बारिश शुरू हो गई है और जनता के दिलों पर ‘उम्मीदों के नए पुल’ बांधने की कवायद भी तेज हो गई है।

जिस तरह मौसम विभाग के विशेषज्ञ अच्छी बारिश का अनुमान जताते हैं, उसी तरह चुनावी मौसम में ‘अच्छे दिनों’ का मानसून सक्रिय होने के कयास लगाए जा रहे हैं। अच्छे दिनों की आस में बरसाती मेंढकों की ही तरह चुनावी मेंढक भी खुश हैं। इनकी टर्र-टर्र चहुं ओर सुनी जा सकती है। टांग खींचने में माहिर इन मेंढकों के बीच टांग खिंचाई की रस्म अदायगी भी बदस्तूर जारी है। गाहे-ब-गाहे यदि इन्हें एक पलड़े पर रखकर तौलने के लिए किसी 'बाहरी' को इनके बीच भेज दिया जाता है तो ये ‘राग-एकता’ भी टर्राने लगते हैं। ‘बाहरी’ के बाहर जाते ही खेमेबंदी शुरू हो जाती तो। ऐसों की भी कमी नहीं है जिन्हें अपनों की भीड़ में चलने से ज्यादा ‘एकला चलो रे’ पर यकीन है।

‘फूल’, ‘हाथ’ और ‘वो’

अब तक तो ‘फूल’ और ‘हाथ’ के चोली-दामन के किस्से सुने ही सुने और सुनाए जाते रह हैं लेकिन अब इनके बीच ‘वो’ भी आ गई है। कुछ राज्यों में सफाई कर चुकी ‘झाड़ू’ रूपी ‘वो’ दोनों के लिए ही ‘दूर के ढोल सुहावने’ जैसी नजर आ रही है। कुछ ‘हाथ’ अपनी किस्मत आजमाने के लिए ‘झाड़ू’ थामने को बेताब हैं तो कुछ हाथ ‘फूल’ को सहला रहे हैं। इसी तरह कुछ ‘फूल’ (इसे अंग्रेजी वाला न समझें, अगर समझ भी लिया है तो हमारी बला से) ‘झाड़ू’ की शान में कसीदे काढ़ रहे हैं, इस उम्मीद से कि ‘वो’ उनके लिए अच्छे दिन लाने में सहायक होगी। कहते हैं कि जब तक महात्वाकांक्षा की आग नहीं भड़कती तब तक ही ठीक है, अगर भड़क गई तो वह दूसरों से पहले खुद को ही जलाने का काम करती है। यह आग हर तरफ जल रही है जिससे ‘झाड़ू’ की सींकें एक-दूसरे को ही चुभ रही हैं, फूल को ‘फूल’ ही नोच रहे हैं और हाथ ही ‘हाथ’ को काट रहे हैं। सामान्य की तुलना में चुनावी महात्वाकांक्षा ऐसी ही होती है।

(चु)नाव में बैठने और कूदने का दौर

वैतरणी को पार करने के तीन ही तरीके हैं, या तो खुद कूद पड़ो और तैर कर पार कर लो या फिर ब्रिज बनाओ और उस पर से गुजर जाओ। तीसरा तरीका है नाव में सवार होकर दूसरे पार चल जाओ लेकिन यदि बीच भंवर में वह हिचखोले खाने लगे और डगमगाने लगे तो उससे कूदकर ही जान पचायी जा सकती है। ऐसा करते समय यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि या तो आपको तैरना आता हो या फिर पास में कोई सुरक्षित नाव हो, अन्यथा डूबना तय है। राजनीति और चुनाव की बात करें तो शुरू के दो उपाय के बारे में सोचना बेमानी ही होगी। पहला ब्रिज बनाने का उपाय तात्कालिक रूप से संभव नहीं और दूसरा तैर कर पार करने के लिए तत्समय धारा के विपरीत बहने जितना साहस होना चाहिए। ऐसे में तीसरा तरीका नाव का सहारा लेना ही उचित है जिसके डगमगाने और हिचखोले खाने का डर बना रहता है। बावजूद ‘(चु)नाव’ से किनारा पाने वाले और खतरा महसूस होते ही कूदकर दूसरी नाव में सवार होने वाले इन दिनों ज्यादा सक्रिय हैं। जाति, धर्म और सम्प्रदाय का झंडा थामकर चलने वाले ऐसे अवसरवादियों से सावधान रहने में ही भलाई है क्योंकि उनके लिए जाति, धर्म, सम्प्रदाय, रिश्ते-नाते गौण हैं, ‘स्व-हित’ सर्वोपरि।

सच्चाई ! बताई तो हंगामा हो गया

किसी ने कहा है कि ‘सच मत कहो, सच कड़वा होता है’ और यदि सच बोलना जरूरी है तो बहुत धीरे से और मधुर शब्दों में बोलो। लोगों ने यह सुना तो है लेकिन अमल करते समय चूक हो ही जाती है। खासकर चिकित्सकीय पेशे से जुड़े व्यक्ति के लिए इस प्रोटोकॉल का पालन करना मुश्किल भरा होता है क्योंकि उसने से तो यही पढ़ा है कि दवाई कड़वी होगी तो असर जल्दी करेगी। इसका असर इस बात पर भी निर्भर करता है कि डॉक्टर इंसानों के हैं या पशुओं के। पिछले दिनों पशुओं के एक डॉक्टर ने भरी सभा में कुछ ऐसा कह दिया जिसकी अपेक्षा वहां मौजूद लोगों ने नहीं की। इसके लिए उन्हें फटकार खानी पड़ी। उन्हें फटकारा इसलिए नहीं गया कि उन्होंने कुछ गलत कह दिया था, बल्कि इसलिए फटकारा गया क्योंकि उन्होंने एक ‘कड़वा सच’ जोर से कहा। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि अगर इस 'कड़वे सच' की जांच हो जाए तो उसकी आंच सत्ता से जुड़े कुछ ‘सफेदफोश’ पर भी आ सकती है जिसकी कानाफूसी बीते काफी समय से चल रही है, खासकर रतलाम ग्रामीण क्षेत्र में पदस्थ शासकीय कर्मचारियों के बीच।

‘प्रभु’ के नाम पर कुछ देदे रे बाबा

पुरुषोत्तम मास और चातुर्मास में एक स्थान पर धर्म-ध्यान कर पुण्य अर्जित करने का प्रयास होता है। इसी पुनीत उद्देश्य से साधु-संतों का आगमन हो चुका है और धार्मिक अनुष्ठान भी शुरू हो चुके हैं। इसके उलट कुछ लोग अपने स्तर पर धार्मिक दुकानें सजा कर अपनी राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए भी प्रयासरत हैं। इसका सिलसिला चातुर्मास से पहले ही भजन और कथा के आयोजन से शुरू हो गया था और चुनाव आने तक जारी रहेगा। जिला पंचायत का तेल निकाल चुके ऐसे ही कुछ लोग जिले में धर्म की आड़ लेकर कहते फिर रहे हैं, कि- ‘प्रभु’ के नाम पर कुछ देदे रे बाबा। अभी भगवान से आशीर्वाद और धन्नासेठों से चंदा मांगा जा रहा है फिर पार्टियों से टिकट तथा उसके बाद जनता से वोटों की मांग होगी। 

चलते-चलते...

एक दिन पूर्व जिले के एक माननीय ने सीएम को पत्र लिखा है। इसमें माननीय ने अपने ही कार्यक्षेत्र के एक गांव की पुलिया के क्षतिग्रस्त होने का जिक्र है। सवाल यह है कि अगर पुलिया क्षतिग्रस्त हो गई है तो उसे संबंधित विभाग से कह कर ठीक करवाइये, अब इतने से काम के लिए भी क्या सीएम को यहां आना पड़ेगा। इससे तो यही प्रतीत होता है कि स्थानीय स्तर पर अफसर आपकी सुनते नहीं हैं, सुन भी लेते होंगे तो अगले ही पल दूसरे कान से निकाल देते होंगे। वैसे भी चार साल तक सिर्फ अपनी सोचते रहो तो भला कोई आपकी क्यों सुनेगा। अब कहने वालों की जुबान कौन पकड़े, जब से क्षतिग्रस्त पुलिया को लेकर सीएम को पत्र लिखने की बात लोगों ने सुनी है, वे कह रहे हैं कि सीएम आगामी चुनाव इन्हीं माननीय के क्षेत्र से ही चुनाव लड़ लें तो ज्यादा बेहतर होगा।