व्यंग्य : सांप पालो तो ऐसे पालो... -आशीष दशोत्तर

इंसानों की आस्तीन में सांप पालने की आदत और तरीके ने सांपों को अपनी फितरत बदलने पर मजबूर कर दिया है। अगर आप भी सांप के बारे में सोच रहे हैं तो यह व्यंग्य जरूर पढ़ लें और इसमें बताए तरीके के अनुसार ही सांप पालें।

व्यंग्य : सांप पालो तो ऐसे पालो... -आशीष दशोत्तर
व्यंग्य : सांप पालो तो ऐसे...

आशीष दशोत्तर

सांप अगर ढंग के पाले जाएं तो वे बार-बार डंस सकते हैं। ऐसे सांपों के डंसने में मरने की गुंजाइश नहीं होती, मुआवजे का विराट फ़लक़ उपलब्ध होता है। कई लोग अपने आस्तीन में सांप इसीलिए पाल कर रखते हैं ताकि जब चाहे उनसे ख़ुद को ही डंसवाले और मुआवजा पा लें।

आजकल सांप ज़हरीले नहीं होते। जब से सांपों ने इस बात को महसूस किया है कि इंसान ज़हरीले होने लगे हैं, उन्होंने विष वमन की आदत को त्याग दिया है। वे विषवान होकर इंसान की तरह अपना अपमान नहीं करवा सकते।

सांपों के साथ दिक्कत यह है कि वे एक बार में जिस रूप रंग में ढल जाते हैं उसे बदल नहीं सकते। इंसानों के साथ ऐसा नहीं है। इंसान गिरगिट की तरह रंग भी बदल लेता है। घड़ियाल की तरह आंसू भी बहा लेता है। बंदर की तरह चतुर, बिल्लियों की रोटी भी खा लेता है। इंसान ने सांपों को पालना जब से शुरू किया तभी से सांपों ने इंसान की हर एक प्रवृत्ति पर अपनी पैनी नज़र रखना शुरू कर दी थी।

जैसे-जैसे इंसान ज़हर उगलता रहा वैसे-वैसे सांप अपना ज़हर कम करते रहे। इसीलिए तो आजकल इंसान को अपने आस्तीन में सांप पालने में कोई तकलीफ़ नहीं होती, बल्कि ऐसा होने पर सांपों का दम घुटने लगता है। सांप अब इस कोशिश में लगे रहते हैं कि किस तरह इंसान की आस्तीन से उनका पिंड छूटे। मगर इंसान को सांप पालने का ऐसा चस्का लग गया है कि वह पकड़-पकड़ कर सांपों को पालता है। किसी इंसान की आस्तीन को झटक कर देखेंगे तो आप हैरत में पड़ जाएंगे । आपको तरह-तरह के सांप लटके नजर आएंगे।

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आजकल आपको नाग पंचमी पर कोई नाग को दूध पिलाता नज़र नहीं आता। आजकल सांप को खुले रूप से प्रदर्शित करना प्रतिबंधित कर दिया गया। जब से यह प्रतिबंध लगा है सांप सपेरों की क़ैद से तो छूट गए परंतु इंसान की गिरफ़्त में आ गए। सपेरे तो एक या दो सांप को पालकर अपने पापी पेट के लिए कुछ जुगाड़ किया करते थे, इंसान कई सारे सांपों को पालकर उन्हें गाहे-बगाहे इधर-उधर छोड़ता रहता है। अपने शत्रुओं को इन्हीं सांपों के बल पर मित्र बनाता है और मित्रों को सांपों का भय दिखा कर ब्लैकमेल करता है।

सांप जब सभी तरह के उपयोग से मुक्त हो जाते हैं तो उनसे खुद को ही डंसवा लिया करता है। सांप से इस तरह खुद को डंसवाने के बड़े फायदे हैं। अच्छा मुआवजा मिलता है। सरकार सिर्फ़ सांप का डंसा देखती है, उसका जहर नहीं। इंसान सांप का डंक दिखाने में माहिर है। कई इंसानों के तो पूरे शरीर पर डंक ही डंक नज़र आते हैं। ये डंक ही तो मुआवजे के अंक में बढ़ोत्तरी करते हैं।

कभी सांपों की दुनिया अजब-गजब हुआ करती थी, आज इंसानों की दुनिया विचित्र हो चुकी है। सांप एक सीधे-साधे प्राणी की तरह अपने बिल में ही रहने लगे हैं। उसे मालूम है बिल से बाहर आने पर इंसान उसे दबोच लगा। जबरदस्ती डंसवाएगा और ज़हरीले हाथों से ही मुआवजे के लिए अपना आवेदन भी लिखेगा। अफ़सोस इस बात का है कि मिल - बांट कर खाने के इस समदर्शी दौर में सांप को उसका हिस्सा आज तक नहीं मिल पाया है।

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(व्यंग्यकार आशीष दशोत्तर एक युवा लेखक हैं। वे मप्र साहित्य अकादमी सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित हो चुके हैं। इनके ग़ज़ल, गीत, कविता संग्रह के साथ ही कई किताबें प्रकाशित हो चुके हैं। इनका पता और संपर्क नीचे दिया गया है।)

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