बड़ा सवाल ? RBI का नया फरमान कहीं राष्ट्रीयकृत बैंकों की कारगुजारियां छिपाने का नया तरीका तो नहीं, विपक्ष अनजान है या जानबूझ कर मूंद ली आंखें

आरबीआई द्वारा राष्ट्रीयकृत बैंकों को लिखा गया एक पत्र सवालों के घेरे में है। आरबीआई ने बैंकों के एडवांस (लोन) के ऑडिट के दायरे को 80 फीसदी से घटाकर 70 फीसदी कर दिया गया है। जानकारों के अनुसार यह घातक हो सकता है।

बड़ा सवाल ? RBI का नया फरमान कहीं राष्ट्रीयकृत बैंकों की कारगुजारियां छिपाने का नया तरीका तो नहीं, विपक्ष अनजान है या जानबूझ कर मूंद ली आंखें
आरबीआई ने घटाया बैंक के एडवांस के ऑडिट का दायरा।
  • आरबीआई के हालिया निर्णय से कम हो जाएगी राष्ट्रीयकृत बैंकों की बाहरी संस्थाओं द्वारा पहरेदारी

  • अभी एडवांस अर्थात दिए गए लोन के 80 फीसदी तक का होता है ऑडिट कवरेज जो अब 70 प्रतिशत रह जाएगा

  • नरेंद्रे मोदी सरकार से पहले तक 90 फीसदी की होती थी मॉनिटरिंग 

नीरज कुमार शुक्ला @ एसीएन टाइम्स . डेस्क बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की नियामक संस्था भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने बड़ा निर्णय लिया है।  आरबीआई ने राष्ट्रीयकृत बैंकों को अपने एडवांस (लोन) के सिर्फ 70 फीसदी का ही ऑडिट करवाने का अधिकार दे दिया है। वर्तमान में यह 80 फीसदी है जो नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक 90 फीसदी व उससे ज्यादा था। बैंकों द्वारा बांटे जाने वाले लोन के दायरे को सीमित करने के आरबीआई के निर्णय पर सवाल उठ रहे हैं। जानकारों की मानें तो यह घातक कदम हो सकता है। आर्थिक मामलों के जानकारों और विपक्ष की चुप्पी भी सवालों के घेरे में है।

बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की मॉनिटरिंग और उन पर नकेल कसने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) की है। इसके लिए आरबीआई समय-समय पर नियम और नीतियां बनाता है और जारी करता है। चार्टर्ड अकाउंटेंट के माध्यम से राष्ट्रीयकृत बैंकों के कारोबार का ऑडिट कराने की व्यवस्था भी इसी मॉनिटरिंग का एक हिस्सा है। इसी भरोसे के चलते लोग बैंकों और वित्तीय संस्थाओं में बेखौफ होकर निवेश अथवा लेन-देन करते हैं। आरबीआई ने हाल ही में देश की सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों के चेयरमैन, महाप्रबंधकों, कार्यकारी अधिकारियों को पत्र लिखा है। इसमें चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा की जाने वाली मॉनिटरिंग को सीमित करने का आदेश दिया गया है। इसके पीछे आरबीआई की कौन सी छिपी मंशा है पता नहीं, जबकि जानकार इसे घातक कदम बता रहे हैं।

बड़े पैमाने पर NPA होने का खतरा हे या पर्दे के पीछे खेल कुछ और है ?

उक्त पत्र आरबीआई के मुख्य महाप्रबंधक शिवकुमार बोस द्वारा 6 मार्च, 2023 को लिखा गया है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र की सभी बैंकों को अपने एडवांस अर्थात लोन का 70% का ऑडिट चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा कवर हो जाए, इस अनुसार अपनी अपॉइंटमेंट लिस्ट तैयार करने के निर्देश दिए गए हैं। आरबीआई द्वारा ऑडिट के दायरे को 70 फीसदी तक सीमित करने का प्रयास किया गया है जबकि देश में नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक 90 फीसदी या इससे अधिक का एडवांस अर्थात लोन इस मॉनिटरिंग में कवर होता था। बैंक की प्रत्येक ब्रांच (शाखा) का हर 3 साल में एक बार ऑडिट होता रहा है। माना जा रहा है कि आरबीआई द्वारा ऑडिट का यह दायरा घटना किसी खतरनाक स्थिति को पैदा कर सकता है। बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? आखिर, आरबीआई क्या छिपाना चाह रही है ? कहीं उसे बड़े पैमाने पर NPA (Non Performing Asset) होने का खतरा तो नहीं महसूस हो रहा ? या फिर परदे के पीछे कुछ और ही खेल चल रहा है ?

विपक्ष को संज्ञान व समझ नहीं या फिर वजह कुछ और है

पत्र जारी हुए एक सप्ताह होने को है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या आरबीआई के इस निर्णय से भारत सरकार का वित्त मंत्रालय सहमत है। अगर सहमत है तो फिर जो मोदी सरकार ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता दिखाने की बातें और दावे करती है, वह राष्ट्रीयकृत बैंकों के एडवांस के ऑडिट को सीमित क्यों करना चाह रही है। अब सरकार की इसके पीछे क्या मंशा है, यह तो वही जाने लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि इस मामले में विपक्ष भी चुप है। अब तक विपक्ष की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आने के दो कारण माने जा सकते हैं कि- 1. उसे आरबीआई के ताजा निर्णय का संज्ञान और समझ ही न हो या 2. उसने जानबूझ कर आंखें बंद कर ली हैं। आर्थिक और बैंकिंग व्यवस्था के विशेषज्ञों का मौन भी समझ से परे है।

...तब भी गड़बड़ी नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी

जानकारों का मानना है कि नए निर्णय के पीछे आरबीआई की सोच शायद यह हो कि राष्ट्रीयकृत बैंकों में ऑडिट के दौरान कोई ज्यादा गड़बड़ियां नहीं मिल रहीं। यदि यही धारणा है तो सिर्फ इस आधार पर बैंकों की पहरेदारी / निगरानी कम कर देना समझदारी नहीं कही जा सकती। ऐसा इसलिए कि यदि अभी तक कोई बड़ी गड़बड़ी नहीं हुई है तो उसकी मुख्य वजह अब तक कायम रही मॉनिटरिंग की व्यवस्था का पुख्ता होना हो सकता है। इसे कम या पूरी तरह खत्म कर देने के बाद भी कोई गड़बड़ नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर आज अमेरिकी बैंक डूबी है या सहारा के निवेशक अपनी खून-पसीने की कमाई वापस लेने के लिए दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं तो इसके मूल में कहीं न कहीं मॉनिटरिंग में रही खामियां ही जिम्मेदार मानी जा सकती हैं।