पुण्यतिथि (4 जुलाई) विशेष : सकारात्मक शक्ति का प्रकाशपुंज स्वामी विवेकानंद जी- श्वेता नागर

स्वामी विवेकानंद जी कभी नहीं चाहते थे कि भारत और जापान समान हों, क्योंकि वे कदापि नहीं चाहते थे कि भारत अपनी मौलिक पहचान को खोकर पाश्चात्य की नकल करे। स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे ही विचारों के बारे में जानते हैं उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर।

पुण्यतिथि (4 जुलाई) विशेष : सकारात्मक शक्ति का प्रकाशपुंज स्वामी विवेकानंद जी- श्वेता नागर
स्वामी विवेकानंद जी।

श्वेता नागर

‘आत्मविश्वास, आत्मविश्वास…! जो अपने आप में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। पुराना धर्म कहता है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है परंतु नया धर्म कह रहा है नास्तिक वह है जो स्वयं में विश्वास नहीं करता।’

इन्हीं शब्दों की सकारात्मक ऊर्जा से भारत और विश्व के युवा वर्ग की निराशा / आत्मग्लानि के अंधकार को दूर करने वाले ‘आत्मविश्वास का सूर्य’ हैं स्वामी विवेकानंद जी। 'स्वाभिमान युक्त भारत' की संकल्पना स्वामी विवेकानंद ने की थी जिसे गर्व हो अपनी संस्कृति पर, गर्व हो अपने धर्म पर और गर्व हो अपने पूर्वजों पर। ऐसे ही एक प्रसंग पर जब उनसे पूछा गया था कि क्या आपकी इच्छा ऐसी है कि भारत जापान के समान हो जाए? तब उनका उत्तर था, ‘नहीं, कभी नहीं। भारत तो भारत ही रहेगा। जैसे संगीत में एक मुख्य स्वर होता है और अन्य स्वर उसके अनुगत होते हैं वैसे ही प्रत्येक जाति का एक मुख्य भाव होता है।’ अर्थात् स्वामी विवेकानंद कदापि नहीं चाहते थे कि भारत अपनी मौलिक पहचान को खोकर पाश्चात्य की नकल करे।

‘धर्म’ शब्द की व्याख्या स्वामी विवेकानंद ने संकीर्ण अर्थों में नहीं की है। उनके लिए धर्म-सम्प्रदायों में बंटा या भिन्न-भिन्न नामों में बंटा धर्म नहीं है। धर्म उनके लिए उस आदर्श संहिता का नाम है जो मानव मन और हृदय का उन्नयन करे, जहाँ मानव का मानव के दुःख / पीड़ा / वेदना को अनुभव करने की शक्ति हो यानी हृदय की अनुभव शक्ति। स्वयं विवेकानंद जी के शब्दों में, ‘क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों संतानें आज पशु तुल्य हो गई हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखों मर रहे हैं? और लाखों लोग शताब्दियों से इसी तरह भूखों मरते आ रहे हैं? क्या तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो? क्या इस भावना ने तुम्हें निद्राहीन कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त में मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या ये तुम्हारे हृदय के स्पंदन में मिल गयी है? क्या इसने तुम्हें पागल-सा बना दिया है? यदि हाँ, तो तुम देशभक्ति की पहली सीढ़ी पर हो। देशभक्ति को विवेकानंद जी ने धर्म के सर्वोच्च शिखर पर रखा।

आज इस दौर में फिर विवेकानंद जी के विचार प्रासंगिक हो जाते हैं जब हम निरंतर प्रगतिशील भारत या राष्ट्र के विकास की बात करते हैं तब हम विकास और धर्म को दो अलग-अलग ध्रुव बतलाते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। यदि हम विवेकानंद के विचारों को आत्मसात करें तब हम समझ जाएंगे कि धर्म का उद्देश्य व्यक्ति और राष्ट्र का विकास करना ही है। धर्मविहीन राष्ट्र का विकास केवल अंधकार में दौड़ लगाने के समान है जहाँ भटकाव है। धर्म कभी विकास में बाधक नहीं है बशर्त है धर्म की सही, सटीक और उदार व्याख्या हो, न कि संकीर्ण। धर्म केवल उच्चारण का विषय नहीं अपितु आचरण का विषय हो तब आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण होता है। विवेकानंद जी के लिए धर्म यानी आत्मविश्वास, सदाचार, संवेदनशीलता, उदारता, कर्मनिष्ठा, सहयोग और विश्व के जन-जन में सकारात्मक विचारों का संचार करना ही जिसका लक्ष्य हो।

स्वामी विवेकानंद के घनिष्ठ मित्र ने स्वामी जी के सकारात्मक व्यक्तित्व का वर्णन कुछ इस तरह किया है– ‘इस जीवन के घोर संग्राम में जब मैं क्षत-विक्षत होकर गिर पड़ता हूँ, अवसाद में आकर हृदय को आच्छन्न कर लेता हूँ तब मैं तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित आदर्श की ओर देखता हूँ तो मेरा सारा विषाद चला जाता है और न जाने कहाँ से एक दिव्य आलोक और दिव्य शक्ति आकर मेरे मन, प्राण को परिपूर्ण कर देती है।’

श्वेता नागर