पुस्तक चर्चा : अच्छी सोहबतों की 'सोहबतें'

साहित्यकार, ग़ज़लकार, कहानीकार आशीष दशोत्तर का ग़ज़ल संग्रह ‘सोहबतें’ प्रकाशित हो चुका है। इसकी ग़ज़लों की विषय वस्तु पर प्रकाश डालती संजय परसाई ‘सरल’ की यह पुस्तक चर्चा एक बार अवश्य पढ़ें।

पुस्तक चर्चा : अच्छी सोहबतों की 'सोहबतें'
आशीष दशोत्तर का ग़ज़ल संग्रह सोहबतें।

संजय परसाई 'सरल' 

वरिष्ठ रचनाकार आशीष दशोत्तर का सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह 'सोहबतें' पाठकों के हाथों में है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक 'सोहबतें' से ही ज्ञात होता है कि यह रचनाएं सोहबतों का ही असर है। सोहबतों में रहकर ही इन रचनाओं ने जन्म लिया है।

सोहबत या संगति व्यक्ति के व्यक्तित्व और विकास का एक पायदान होती है। अच्छी सोहबत अच्छे और बुरी सोहबतें बुरे रास्ते पर ले जाती हैं लेकिन हमें खुशी है कि आशीष की सोहबत अच्छे और श्रेष्ठ लोगों से रही और उसी का परिणाम है की अच्छी सोहबतों की 'सोहबतें' हमारे हाथों में है।

आशीष की यह ग़ज़लें हर एक पायदान पर निखरती चली जाती हैं क्योंकि जैसे-जैसे अच्छे लोग मिलते गए अच्छी और उम्दा रचनाएं जन्म लेती गईं।

 मुश्किलों को देखकर हम भी अगर मुँह मोड़ते,

 जिंदगी तुझको यहां किसके भरोसे छोड़ते?

वहीं एक अन्य ग़ज़ल में वे अंधेरों को शिकस्त देने की बात कहते हुए कहते हैं-

हमें आ गया है चरागों सा जलना

पड़ेगा अंधेरों तुम्हें हाथ मलना

व्यवस्थाओं पर रोष जताते हुए वे कह उठते हैं-

हमें दिन के उजालों में भी अपना हक नहीं मिलता,

तेरी खातिर तो रातों में अदालत जाग उठती है।

मिट गए घर के घर आपने क्या किया,

हम हुए दरबदर आपने क्या किया।

आखिरी वक्त में कुछ न हासिल हुआ,

सोचिए, उम्र भर आपने क्या किया।

कहते हैं कि जो काम दवा नहीं कर पाती वह काम दुआएं कर जाती है। यही कारण है की बात-बात पर दुआओं में याद रखने की मिसाल दी जाती है।

दुआ किसकी न जाने जिंदगी को मोड़ क्या दे दे,

अगर बस में है तेरे तो सभी का तू भला कर दे।

वहीं ‘भरोसा’ शब्द पर शंका जाहिर करते हुए वह कहते हैं-

भरोसा क्या करें 'आशीष' अपने पे या गैरों पे,

यकीं जिस पर किया है क्या पता वही दगा कर दे।

जरूरतमंदों तक योजनाओं का लाभ न मिल पाने और लचर व्यवस्थाओं की पोल खोलते हुए वह कहते हैं-

भरे गोदाम हैं 'आशीष' राशन मुफ्त बांटा पर,

अभी भी खा रहे हैं रोटियां कुछ लोग बासी।

 वहीं आदमी की फितरत पर तंज कसते हुए वह कहते हैं-

साया है, धूप, फूल है, कांटा है आदमी,

 समझा नहीं है कोई भी क्या-क्या है आदमी।

चंद लम्हों में वो हर, नक्श मिटा देते हैं

काम निकला तो यहां लोग भुला देते हैं।

अतः कहा जा सकता है सोहबतों में रहकर आशीष ने बहुत सी अच्छी-बुरी बातों को गहराई से सीखने और समझने का प्रयास किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में प्रेम, प्यार, जज्बात हैं तो खीझ, चोट, रुसवाई भी है। वे अच्छी सोहबतों का साथ चाहते हैं और कहते हैं-

तू हो सफर में साथ तो बेहतर लगे मुझे

तेरे बिना उदास यह मंजर लगे मुझे

यह मस्तियां, उधम ये शरारत ये शोरगुल

बच्चे ना हो तो घर भी कहां घर लगे मुझे।

अतः कहा जा सकता है कि सोहबतों ने आशीष की कलम को एक नई राह और रोशनी दिखाई है और इस रोशनी के पथ पर निर्भीक, निडर हो अपनी कलम को तेज करते हुए अंधेरे के पंखों को काटते हुए ऊंची उड़ान को अग्रसर हैं। वे सकारात्मक सोचते हैं और अन्य को भी सकारात्मक सोच की प्रेरणा देते हैं।

भूखे लोगों को रोटी मिली जब कभी,

मेरी बस्ती पे उस दिन शबाब आएगा।

वबा, तूफान, दहशत, भूख, आँसू और बेगारी

 हजारों गम हैं फिर भी देखना हम मुस्कुराएंगे।

आशीष की रचनाएं सकारात्मक संदेश देती प्रतीत होती है। यह संदेश सकारात्मक सोच और अच्छी सोहबतों का ही तो नतीजा है। यदि पाठक भी चाहते हैं कि अच्छी सोहबत उन्हें भी मिले तो उन्हें इंक पब्लिकेशन की यह 'सोहबतें' अवश्य पढ़नी चाहिए। 

 संजय परसाई ‘सरल’

 118, शक्तिनगर, गली नंबर 2

 (महाकाल मंदिर के सामने )

रतलाम (मप्र)

चलित दूरभाष : 98270 47920