क़िताब के पन्नों से : दिलों के दरवाज़े पर दस्तक देती आवाज़- आशीष दशोत्तर

आओ झांकें किताब के पन्नों में और पिता की उंगली, कंधा, बाज़ू और गोदी के स्पर्ष का अहसास करें। यह अहसास करा रहे हैं युवा साहित्यकार आशीष दशोत्तर।

क़िताब के पन्नों से : दिलों के दरवाज़े पर दस्तक देती आवाज़- आशीष दशोत्तर
उंगली कंधा बाज़ू गोदी... किताब के पन्नों से।

आशीष दशोत्तर 

आज की ग़ज़ल वक़्त के साथ चलती ग़ज़ल है। उसमें रवानी है, हालात की अक्कासी है, नए-नए मुशाहिदे हैं। आम इंसान के जज़्बात हैं और साथ ही वह ख़ास रिश्ते हैं जिन्हें अक्सर ग़ज़लों का विषय नहीं बनाया जाता रहा, मगर अब ये सारे रिश्ते भी ग़ज़ल के हमक़दम हो रहे हैं।

ग़ज़ल एक ऐसी सिम्फ़ है जो ‘ग़मे-जानां’ से ‘ग़मे-दौरां’ की बात करती है। वक़्त ने ग़ज़ल के तेवर में कई सारी तब्दीलियां की हैं। कई सारे ख़ास मकामों तक ग़ज़ल को पहुंचाया है। यही कारण है कि आज नए-नए प्रयोग ग़ज़ल में हो रहे हैं। युवा शाइर और ग़ज़ल के प्रति अपना ख़ास रुझान रखने वाले ग़ज़लगो भवेश दिलशाद ने भी ऐसी ही कोशिश की है, पिता पर केंद्रित ग़ज़लों को एक साथ शाया करने की। ‘उंगली, कंधा, बाज़ू, गोदी’ उन्वान से हाल ही में श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली से आई यह क़िताब ग़ज़ल के एक ऐसे विषय को सामने ला रही है जिसे अब तक अनछुआ समझा जाता रहा। मां विषयक ग़ज़लें जितनी बहुतायत में कही जाती रहीं, पिता विषयक ग़ज़लें उतनी ही कम। यही कारण है कि इस क़िताब को तैयार करने में भवेश दिलशाद को काफी मेहनत करनी पड़ी। इस क़ाविश को उन्होंने अपनी बात में स्पष्ट भी किया है। वे कहते हैं ‘इस किताब को तैयार करने में पिता केंद्रित तकरीबन 100 ग़ज़लों से आमना-सामना हुआ। इनमें से कुछ ग़ज़लें छांटकर क़िताब तैयार की है।‘

यह किताब दिलों पर दस्तक देती हुई आवाज़ है। इस संकलन में पिता पर केंद्रित 61 ग़ज़लकारों की ग़ज़लें शाया की गई हैं। हर ग़ज़ल का अपना रंग है, अपना मिज़ाज है। हर शे'र की अपनी शैली है‌। पिता को जिस तरह महसूस किया जाता रहा, उसी तरह हर शाइर ने कहने की कोशिश की है। हर ग़ज़ल अपने आप में मुकम्मल है। इसके साथ ही क़िताब के आख़िर में 56 अशआर भी दिए गए हैं जो हमारे वक़्त के उन महत्वपूर्ण शाइरों के हैं, जिन्होंने पिता को अपने अल्फ़ाज़ में पिरोया है। ग़ज़लों के चयन के लिए संपादक भवेश दिलशाद का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए जिन्होंने एक विषय पर केंद्रित इतनी ख़ूबसूरत ग़ज़लों को एकत्रित कर, उन्हें चयनित करने और फिर क़िताब की शक्ल में लाने में काफी श्रम किया।

एक यहूदी कहावत से क़िताब की शुरुआत की गई है- ‘जब बाप औलाद को कुछ देता है दोनों हंसते हैं, औलाद  बाप को कुछ दे तो दोनों रोते हैं।’ कमोबेश यही सिलसिला भीतर की ग़ज़लों में भी दिखाई देता है। हर ग़ज़ल का ज़िक्र न करते हुए अगर कुछ अशआर को देखा जाए तो इस किताब की ख़ासियत से आम पाठक वाबस्ता हो सकता है।

रिश्तों को अपने कलाम में बहुत खू़बसूरती के साथ ढालते रहे शाइर आलोक श्रीवास्तव कहते हैं-

भीतर से ख़ालिस जज़्बाती और ऊपर से ठेठ पिता,

अलग, अनूठा अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी। 

वरिष्ठ शायर डॉ. उर्मिलेश कहते हैं-

‘जब मैं बच्चा था तो मेरे मास्टर वे ख़ुद बने,

अब बुढ़ापे में मेरे बच्चों के ट्यूटर हैं पिता।’ 

भवेश दिलशाद भी कुछ इसी अंदाज़ की बात करते हुए कहते हैं-

कंकड़ - कंकड़ डाल घड़े में प्यास बुझाती कविता थे,

गाते नहीं थे ट्विंकल-ट्विंकल वाली पोयम पापा जी। 

यह मेरी खुशकिस्मती है कि पिता पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण क़िताब में मेरे भी कुछ अशआर शामिल हुए-

अपने घर का रुतबा, रौनक, शानो-शौक़त पापा थे,

सब की चाहत, सब की हिम्मत, सब की आदत पापा थे। 

पिता ऐसा विषय है जिस पर कविताएं तो बहुत कही गईं लेकिन ग़ज़ल में पिता को बहुत कम ढाला गया। इसके जो भी कारण रहे हों मगर इस चिंता को पुस्तक की भूमिका में भी रेखांकित किया गया है। ग़ज़ल के समर्थ शाइर देवेंद्र आर्य ने भूमिका में स्पष्ट करते हुए कहा भी है ‘ग़ज़ल का शिल्प शुरू से ही महबूब से बातचीत का शिल्प रहा है, जिसमें मोहब्बत, तड़प, बेवफाई और शिकायत का इज़हार किया जाता रहा। बाद के दिनों में और ख़ासतौर पर आठवें दशक में जब हिंदी ग़ज़ल सामने आई तो ग़ज़ल के कथ्य में विस्तार आया और घर, परिवार तथा अन्य रिश्तों पर भी शेर कहे जाने लगे। ग़ज़ल का फॉर्म ही ऐसा है जिसमें शामिल हर शे'र अपने कथ्य में पूर्ण और स्वतंत्र होता है। हालांकि विषय केंद्रित ग़ज़लें जिन्हें मुसलसल ग़ज़ल कहते हैं, भी कही जाती रहीं, पर उनकी रिवायत कम मिलती है और उन्हें वह सम्मान भी नहीं मिल पाता जो उसी विषय पर कहीं किसी नज्म को मिलता है।'

इन सबके बावजूद इस क़िताब में जो ग़ज़लें और बिखरे-बिखरे से अशआर शामिल किए गए हैं, वे इस बात की ताक़ीद करते हैं कि पिता गजलों के लिए अचरज का विषय नहीं रहा। रवायती दौर की शाइरी में भी ग़ज़लों में पिता शामिल होते रहे। यही बात इस संग्रह में शामिल वरिष्ठ शाइरों के अशआर से महसूस की जा सकती है। 

मेराज फैज़ाबादी कहते हैं-

मुझे थकने नहीं देता ये ज़रूरत का पहाड़,

मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते। 

विजय वाते कहते हैं-

आश्वासनों के रंग हैं कितने मधुर,

यह किसी ताज़े पिता से पूछिए। 

वसीम बरेलवी साहब का यह शे'र भी आज के बदलते समय की बानगी पेश करता है- 

घरों की तरबियत क्या आ गई टी.वी. के हाथों में,

कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता। 

कुछ ऐसी ही बात अशोक ‘अंजुम’ भी अपनी ग़ज़ल में कहते हैं-

‘क्यों बुढ़ापे में मुझे लगने लगा,

ये अजनबी सा तेरा दर बेटा।’ 

क़िताब का हर शे'र महत्वपूर्ण है। हर शे'र का ज़िक्र किया जाए यह ज़रूरी है, मगर ज़िक्र करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि एक अलहदा विषय पर किए गए इस प्रयास को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचाया जाए। 

एक झोंका फिर हवा का छू गया किस प्यार से,

इस हवा के एक झोंके को बिखरना चाहिए। 

नए-नए ख़्याल ही आज की ज़रूरत हैं और तेज़ी से बदलते समाज में गुम होते हुए रिश्तों को बचाने के लिए ऐसी कोशिशों को दूर-दूर तक जाना चाहिए। 

आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर, बरबड़ रोड

रतलाम - 457001

मो. नं. - 9827084966