आशीष दशोत्तर
कविता अपने वक्त की पहचान कराती है। जब शब्दों के सामने बहुत से संकट खड़े हों, जब छद्म आवरण के जरिए सत्य को ढंकने की कोशिश की जा रही हो, जब हक़ीक़त को हाशिए पर धकेला जा रहा हो, तब कविता और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। कविता सिर्फ शाब्दिक जुगाली नहीं बल्कि उस अनुभूति से उपजी हक़ीक़त है जिसे हम भोगा हुआ यथार्थ कहते हैं। कविता के कई आयाम हो सकते हैं। कई रूप हो सकते हैं, मगर उसकी पक्षधरता सदैव मनुष्य के साथ ही होना चाहिए। मनुष्य से अलग और मनुष्यता से विमुख कविता सार्थक नहीं होती। कविता वही हर वक्त में दोहराई जाती है जो इंसानियत से वाबस्ता रहे।
अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, स्पष्ट दृष्टि और सकारात्मक रुख़ के ज़रिए काव्य जगत में अलग पहचान बनाने वाली कवियत्री प्रभा मुजूमदार की कविताएं भी हालात की अक्कासी करती हैं। वक़्त से सवाल करती है और हर उस पीड़ा को उभारने की चाह रखती है, जिससे आम इंसान त्रस्त है।
दुःख अक्सर आता है दबे पाँव
और निहत्था पाकर कर देता है वार।
ठीक उस वक़्त जब खुशी से कुलाँचे
भर रहे होते हैं हम
तभी गर्दन दबोचकर पटक देता है ज़मीन पर।
थिरक रहे होते हैं प्यारी सी धुन पर
तभी सीने में भर देता है पीड़ा की लहरें।
प्रभा जी 1973 से लेकर 1977 तक रतलाम में रहीं। रतलाम में बिताए ये वर्ष दिखने में कम अवश्य रहे मगर महत्वपूर्ण रहे। वे कहती हैं,'मेरे लिए ये वर्ष बहुत महत्वपूर्ण एवं उपलब्धियों से भरे रहे। यहीं से गणित में एम.एस-सी. किया और विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम रहीं। कॉलेज की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत भागीदारी रहीं। उस वक्त देवताले सर, पाठक सर आदि के साथ चर्चाओं में बहुत सीखा भी। एक अरसे बाद रतलाम से सम्बद्ध किसी साहित्यिक गतिविधि के बारे में बात करते हुए बहुत खुशी हो रही है।' प्रभा जी साहित्यिक गतिविधियों में काफी सक्रियता से लगी रहीं। कविता के प्रति लगाव और समझ इस वातावरण से ही मिल सका। यह उनकी कविता से स्पष्ट भी होता है।
अंतिम नहीं होती कोई हार, कोई भी जीत
निर्विवाद नहीं होती।
सिर्फ़ स्थगित होते हैं युद्ध ख़त्म नहीं होते कभी।
एक युद्ध का परिणाम अक्सर निर्धारित करता है
आगामी जंग का आरंभ समय, सीमा,दिशा.......
जीत के जश्न बढाते हैं
प्रतिशोध में लिए गए संकल्पों के तेज।
इतिहास दोहरता है अपने को
नए नामों और चेहरों के साथ।
देखो समूचा ब्रह्मांड ही एक युद्धस्थल बन गया है
इस कौरव पांडवों के खेल में
और मूक प्यादे बने हम अभिशप्त हैं
एक खेमे को चुनने के लिए।
षडयंत्रों और झूठ,
अधर्म और अन्याय की बुनियाद पर
खुदगर्ज़ी और अहंकार के लिए लड़े जा रहे
एक और धर्मयुद्ध को जारी रखने के लिए।
प्रभा जी की कविताएं वक्त से आंख मिलाती कविताएं हैं। वे सच को सच कहने का साहस रखती हैं। ये कविताएं सत्य को स्वीकारने और झूठ पर उंगली उठाने से गुरेज नहीं करतीं। उनकी कविताएं कविता की दिशा को स्पष्ट रूप से तय करती है। एक रचनाकार को अपनी रचना का रुख कैसे तय करें, यह प्रभा जी की कविताओं से सीखा जा सकता है। वे निरंतर प्रतिरोध की कविताएं लिखकर भी अपनी कविता की ताक़त को कम नहीं होने देती हैं। उनकी कविता बेहतर से और बेहतरी की तरफ़ जाती है और इशारों ही इशारों में कई सारे सवालों को खड़ा करती है।
उसने मुहिम छेड़ रखी है
सारी लंबी रेखाओं को मिटाने की।
कुछ बड़ी रेखाओं को बताया
इतिहासकारों की साजिश।
कुछ रेखाओं के रंग देश विरोधी बताएं,
कुछ लंबी रेखाओं की स्याही मेँ पाए तत्वों को,
साज़िशों से भरपूर बताया
तो कुछ रेखाओं को खड़ा कर दिया
आमने - सामने दुश्मनों की तरह।
गोलियां भी चलवा दीं कुछ रेखाओं पर
या भस्म हो जाने का श्राप दे दिया
अपने संत साध्वियों के द्वारा।
मगर न जाने किस मिट्टी से
खींची गईं थी रेखाएँ,
समय के शिलालेख सी...
गालियों, गोलियों, श्रापों के
किसी भी प्रभाव से अविचलित,
पूरी दुनिया के पटल पर जगमगाती रहीं।
यहाँ तक कि समानान्तर ही रहीं
एक-दूसरे को जबरन काटने
खड़ी की गई रेखाएँ या पूरक हो कर
बन गई और भी लंबी गहरी।
यहां प्रभा मुजूमदार जी की चिंता लाज़मी है । रचनाकार दरअसल इसी लकीर से चिंतित रहता है । यह लकीर जो हर कहीं खींच दी जाती है । दिलों से लेकर सरहदों तक। घर से लेकर बाज़ार तक। रस्मों से लेकर रवायत तक और न जाने कहां-कहां ये रेखाएं मनुष्य को मनुष्य से अलग करती हैं। प्रभा जी की चिंता भी इसी रेखा को लेकर है। वक़्त का हर दौर इस तरह की लकीरों के साथ उपस्थित होता रहा। मनुष्यता को बचाने के लिए रचनाकार सदैव अपनी रचना के ज़रिए यही कोशिश करता है कि इन लकीरों की उम्र अधिक न हो। प्रभा जी की कविता भी ऐसी ही कोशिशों से गुज़रती नज़र आती है।
तानाशाह के लिए
ज़रूरी बस इतना ही है कि खडे कर दिये जाएं,
वे तमाम लोग एक-दूसरे के विरोध में,
जिन्हें असल में होना चाहिए एक-दूसरे के साथ,
हमदर्द और मददगार।
कल्पित शत्रुओं के नाम से
डराये गए,छले , भरमाए हुए लोग,
बहुत उपयुक्त होते हैं
बारूद की तरह इस्तेमाल होने के लिए।
उसके प्रचारतंत्र को,
झूठे किस्सों की बम्पर पैदावार चाहिए।
आपस में ही ले लेंगे वे एक दूसरे की जान,
और महसूस कर लेंगे
पुण्य हासिल होने का सुकून।
निर्मम हत्याओं को कह देंगे शौर्य और इंसाफ़।
इतिहास की किन्हीं ग़लत-सही घटनाओं का
हिसाब चुकता कर देंगे, बस उनकी पीठ पर
अभयदान का तुम्हारा हाथ चाहिए।
कवि की बेचैनी क्या होती है? यह सवाल बहुत आसान है मगर इसका जवाब कई सारे संदर्भों को जोड़ता है। कवि की बेचैनी सिर्फ़ उसकी नहीं होती बल्कि वह उन तमाम परिस्थितियां को लेकर बेचैन होता है जो उसके आसपास होती है। उसका अपना परिवेश, उसका समाज, उसका अपना क्षेत्र। जिस परिधि में वह निवास करता है उस परिधि की विवशता और व्यवस्था। उसका अपना प्रदेश, उसका अपना देश। सभी दूर की बेचैनी उसकी अपनी बेचैनी होती है। एक रचनाकार ही उसे शिद्दत से महसूस करता है। उसके लिए इतना अधिक परेशान हो जाता है कि वह बेचैनियों से ख़ुद को वाबस्ता कर लेता है। इसीलिए उसे हर दर्द में अपना दर्द ही नज़र आता है। हर किसी की विवशता में अपनी विवशता नज़र आती है। किसी पर होते सितम में खुद पर सितम महसूस होता है। यानी वह अकेला होकर भी सभी के साथ होता है और सभी के बीच होकर भी अकेला। प्रभा जी की बेचैनी भी उनकी अकेले की न होकर बहुत व्यापक महसूस होती है।
यह अपराधियों का स्वर्ण युग है।
हत्यारे को अभयदान मिल चुका है
सत्ता के शीर्ष से।
घोषित किया जा चुका है उसे
दल और कुल का जगमग दीप।
व्यवस्था समूची शक्ति और सामर्थ्य के साथ,
उसके साथ खड़ी है ,
षडयंत्रों की रंगीन छतरी को लेकर ।
झंडों, नारों जुलूसों के उन्मत्त गर्जन में
घोंट दी गई है क्षत विक्षत देह की
सिसकियाँ, चीत्कार....
मूक की जा चुकी, समूहिक चेतना, आत्मा की
चुनौती देती कुछ दबी हुई आवाज़ें।
जेल की यातनाएँ,
तेज रफ्तार गाडियाँ, गुंडों की दहशत,
एक साथ मिटा देती हैं
पीड़ित और प्रताड़ितों की
कई- कई पीढ़ियाँ।
यूं भी ग़लत का विरोध, जुल्म का प्रतिरोध,
घोषित अपराध है इन दिनों।
परिस्थितियां विकट है तब क्या मनुष्य को हार मान लेनी चाहिए ?प्रभा मुजुमदार जी की कविता इस बात से इनकार करती हैं। उनकी रचना कहती है की परिस्थितियां कैसी भी हो लेकिन उन्हें एक दिन बदलना है। आज भले ही घना अंधियारा है मगर हर अंधकार के बाद एक रोशनी बिखरती है। प्रभा जी की कविता भी उसी रोशनी की उम्मीद जगाती है।
अंतिम नहीं होती कोई पराजय
अँधेरे, घुटन और अपमान के
अवसाद भरे कोनो में
कहीं न कहीं छिपी ही होती है
सम्भावना की हल्की सी किरण
दिये कि लौ सा टिमटिमाता कुछ उजाला।
कवि का अपनी जड़ों की ओर लौटना स्वभाविक है। यह उसके भीतर का जुड़ाव ही है जो उसे बार-बार अपनी जड़ों की ओर ले कर आता है। समय के साथ कई सारे पल ,स्मृतियां और दृश्य हमसे छूटते जाते हैं। ये सारे दृश्य एक रचनाकार के भीतर सदैव मौजूद रहते हैं और बार-बार उसे अपने क़रीब आने के लिए विवश करते हैं। रचना प्रक्रिया से गुज़रने की छटपटाहट उन दृश्यों के क़रीब जाने की कोशिश ही है। जब तक रचनाकार उन दृश्यों की ओर नहीं लौटता उसे चैन नहीं मिलता। प्रभा जी भी अपनी जड़ों का ज़िक्र करती है बल्कि वह अपनी जड़ों को बचाने का जतन भी करती हैं।
जड़ें जानती हैं अपने को ज़िन्दा रखना,
अन्धेरे और गुमनामी के बरसों, सदियों, युगों...
मिट्टी की अनगिनत पर्तों के भीतर
वे पड़ी रहती हैं अविचल, निस्पन्द, निर्वासित-सी।
झेलती हैं धरती के कम्पन
आसमान का फटना महसूस करती हैं
अपने ठीक ऊपर।
धंसती हैं वे पाताल की अथाह गहराइयों में
उस शाख के लिये,
जो आसमान को छू लेना चाहती है।
सूरज को देखे बग़ैर महसूसती है उसकी आँच।
डालियों पर झूलती फूल-पत्तियों की इठलाहट से।
तितलियों के संगीत से झूमती है मन ही मन।
जड़ें जानती हैं वक़्त और हालात की
थोड़ी भी चूक से कितने ही बीज नष्ट हो चुके हैं
वृक्ष बनने की राह में।
फिर भी उसे अभिमान नहीं अपेक्षा,
महात्वाकांक्षा नहीं।
विशालकाय वृक्ष से कृतज्ञता की दरकार नहीं
इसीलिये ज़िन्दा हैं जड़ें
मृतप्राय समझी जाने के बावज़ूद।
एक रचनाकार सदैव नवसृजन का पक्षधर होता है। वह किसी भी स्थिति में हर उस आमद का स्वागत करता है जो कई सारी संभावनाओं को जन्म देने में सक्षम होता है। प्रभा जी के भीतर का रचनाकार भी उस नवीन संभावना के प्रति बहुत आशान्वित है। उनकी कविताएं नएपन का स्वागत कर उसे सहजने की इच्छा रखती हैं।
बहुत सुखदायी होता है
ठूंठ पड़े वृक्षों पर नई कोंपलों को फूटते देखना,
हरी-भरी ताज़ा पत्तियों से
सज-संवर कर उनका इठलाना।
बारिश से पायी अमृत की थोड़ी-सी बून्दों से,
एक अतीत जैसे उठ खड़ा हुआ वर्तमान में
और झाँक रहा है भविष्य के रोशनदानों से बाहर,
आशा और आस्था से परिपूर्ण हो गया है मन।
सुदूर आकाश के छोर पर एक इन्द्रधनुष
झिलमिला रहा है जीवन के सारे रंगों को समेटे।
प्रभा जी का जन्म 10 अप्रैल, 1957 को इन्दौर में हुआ। एम.एससी. पीएच.डी. (गणित) करने के बाद वे तेल एवम प्राकृतिक गैस आयोग में भूवैज्ञानिक के तौर पर 35 वर्ष कार्यकाल के बाद उप महाप्रबंधक (तेलाशय) के पद से मई 2017 में सेवानिवृत हो चुकी हैं। उनके 4 कविता संग्रह ‘अपने अपने आकाश’ (2003), ‘तलाशती हूँ जमीन’ (2010), ‘अपने हस्तिनापुरों में’ (2014) “सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध” (2019) प्रकाशित हुए हैं।
प्रभा जी को कविता के लिए गुजरात साहित्य परिषद, सृजनगाथा द्वारा डॉ श्रीकांत वर्मा पुरस्कार,शब्द निष्ठा अजमेर द्वारा कविता पुरस्कार, सृजनगाथा (छत्तीसगढ़) द्वारा सिंधु रथ पुरस्कार ,शब्द निष्ठा अजमेर द्वारा व्यंग्य के लिए पुरस्कार, हिन्दी लेखिका संघ म. प्र. द्वारा रजत जयंती समारोह में काव्य संग्रह हेतु पुरस्कार,
अविराम साहित्यिकी द्वारा समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता पुरस्कार सहित कई पुरस्कार मिले हैं।
प्रभा जी की रचनाओं में स्त्री स्वर को प्रमुखता मिली है। वे स्वयं एक स्त्री होने के कारण उस भोगे हुए यथार्थ को सामने लाने से पीछे नहीं हटती। वे स्त्री की उस परवशता को भी कविता के ज़रिए सामने लाती है जो अमूमन कई सारे पर्दों के पीछे छुपी रह जाया करती है।
बाज़ार को चाहिए
नख से शिख तक औरत की देह,
जिसकी नुमाइश कर वह बेच सके
साबुन और क्रीम,शैंपू और लिपस्टिक।
बाज़ार को चाहिए
करवाचौथ करती हुई औरतों के जमघट
जिनसे बिक सकें पूजा का सामान
बिंदी, चूड़ियाँ और चुनरी।
बाजा़र को चाहिए
अभावों से ग्रस्त, फतवों से त्रस्त
सताई हुई औरतों के आँसू
जिनकी संजीवनी से चल निकले
अनाम / अनजान चैनल्स, बंद पड़े अख़बार
छुटभैयों की परिचर्चाएं।
इन परिस्थितियों के लिए वे जिम्मेदारों पर उंगली उठाने से भी नहीं चूकती । स्त्री शक्ति और उसके महत्व की बात करने वाले ज़िम्मेदार जब स्त्री को अधिकार देने की बात आती है तो पीछे हट जाते हैं। प्रभा जी ज़िम्मेदारों कै इस दोगलेपन पर भी सवाल उठाती है।
इन दिनों द्रौपदी के प्रश्नों पर
निरुत्तर नहीं रहती राजसभा
कोरस मिलाकर किया जाता है
उसकी हंसी का उपहास।
फिकरे कसे जाते हैं
उसके चाल चलन, चेहरे पहनावे और आवाज़ पर,
दुर्योधनों की खुशामद करने की
अनवरत प्रतियोगिता के दौरान
उतरते हैं कितने ही नक़ाब भाषा और संस्कारों के।
इन विषमताओं के बाद भी प्रभा जी अपनी रचना प्रक्रिया से पीछे हटने की बात नहीं करती। वे दुनिया की आधी आबादी को यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां इतनी बदतर नहीं है। इन परिस्थितियों में ही हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना है। अपनी बात को मज़बूती से रखना है और अपने महत्व को रेखांकित करना है। प्रभा मुजुमदार ये कविताएं इसी विश्वास को जगाने का प्रयास करती हैं।
लिखूँगी तो ज़रूर मैं
खुशी की खिलखिलाहट में
व्यथा ओर छटपटाहट में
अभिलाषाओं की मरीचिका स्वप्नों की ख़ुमारी
और हकीक़तों की कडुवाहटों में भी।
प्रभा जी का यह विश्वास ही उनकी रचनात्मकता को नई ऊर्जा से परिपूर्ण करता है। वे निरंतर सृजनशील हैं, यह साहित्य जगत के लिए सुखद है।
अशीष दशोत्तर
12/2,कोमल नगर,
बरबड़ रोड, रतलाम- 457001
मोबा. 98270 84966