नीर-का-तीर : आखिर, मजिस्ट्रियल जांच के औचित्य पर क्यों उठे सवाल, पुराने कप्तान ठंडे दूध से जले इसलिए नए छांछ फूंक रहे, ऐसा कोई नहीं जिसे ‘झांसा-नी’ दिया
काफी समय से आप ‘नीर-का-तीर’ कालम नहीं पढ़ पाए। लंबे अंतराल के बाद एक बार आपकी सेवा में फिर हाजिर कुछ खास तीर लेकर। आप भी पढ़ें, पसंद आए तो आगे बढ़ाएं और पसंद नहीं आए तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें ताकि सुधार का सिलसिला जारी रहे।
नीरज कुमार शुक्ला
रतलामवासियों के लिए पूरे साल में सितंबर का महीना ज्यादा ही चिंता वाला होता है। वजह पूर्व की कुछ घटनाएं हैं जिन्होंने शहर का साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने में कोई कसर नहीं रखी थी। ये सितंबर में घटित हुईं थी जिनकी आंच तब जन-जीवन के साथ ही तीज-त्यौहारों पर भी आई थी। इस साल भी गणेश चतुर्थी की रात ऐसा ही कुछ घटित होते-होते रह गया। गनीमत रही कि, संयमित शहरवासियों की सूझ-बूझ ने कुछ भी अप्रिय नहीं होने दिया, हालांकि खाकी दागदार जरूर हो गई।
खाकी के दाग छिपाने के प्रयास में कुछ अफसर और कर्मचारी नप गए तो कुछ और के आगामी दिनों में नपने की संभावना है। गणेश प्रतिमा के जुलूस पर पथराव का आरोप लगाने वाली भीड़ पर रात के अंधेरे में खाकी का कहर टूटा। बहती गंगा में खाकी वाले अमले के ‘दो-नंबर’ के साहब ने भी खूब दौड़ लगाई, उनके अदने हुक्म बजाने वालों ने तो डंडे तक चटकाए इस भरोसे में कि उन्हें ‘एक-नंबर’ वाले साहब बचा ही लेंगे। मामले ने तूल पकड़ा तो उनके मनसूबों पर पानी फिर गया। उन्हें जिन पर बचाने का भरोसा था वे खुद ही नहीं बच पाए और जिले से बाहर फेंक दिए गए। राजस्व विभाग के एक कारिंदे को भी दफ्तर हाजिर कर दिया गया है जिनके ‘क्रिया-कलापों’ पर सोशल मीडिया पर लोग लिखने से नहीं चूकते।
इस जांच से किसी पर आएगी आंच ?
पथराव, पथराव का विरोध, खाकी की सख्ती और आदिवासी युवक की मौत के मामले में कौन-कितना सही या गलत है, यह जांचने के लिए मजिस्ट्रियल जांच होनी है। जांच के बिंदुओं पर किसी को कोई "शक-ओ-शुब्हा" नहीं है लेकिन जांच करने वाले अधिकारी को लेकर सवाल जरूर उठ रहे हैं। तीन दिन में कुछ आशंकाएं-कुशंकाएं सुनाई भी दी हैं। 1. खाकी के जिस कप्तान की भूमिका पर सवाल उठे और पत्रकार वार्ता के दौरान उनके पास की कुर्सी पर जो अफसर पूरे समय बैठे रहा हो क्या वह बिना प्रभाव में आए ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ कर पाएंगे ? आरोपित अफसर के कैडर के मुकाबले जांच अधिकारी का कैडर निम्मतर है इसलिए क्या यह जांच ठीक से होगी ? 3. यदि सरकार को मामले की निष्पक्ष जांच करानी है तो फिर न्यायिक जांच (न्यायिक व्यवस्था से जुड़े व्यक्ति से) या फिर बाहर के किसी उच्चाधिकारी को इसकी जिम्मेदारी क्यों नहीं सौंपी गई ?
ये सवाल उठाने वालों का तर्क है कि- ‘न्यायिक जांच से तात्पर्य न्यायालय या न्यायिक प्राधिकरण द्वारा आपराधिक मामले में की जांच से है। इसमें स्थापित प्रक्रियाओं और साक्ष्य के नियमों का पालन होता है। इस जांच के निष्कर्षों का कानूनी कार्यवाही और मामले के अंतिम परिणाम पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। वहीं, मजिस्ट्रेट जांच से तात्पर्य मजिस्ट्रेट द्वारा की जांच से है, जो सीमित शक्तियों वाला एक न्यायिक अधिकारी होता है। ऐसी जांच अक्सर ऐसे मामलों में की जाती है जहां कथित अपराध बहुत गंभीर नहीं हो। इस जांच का प्राथमिक उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि क्या औपचारिक सुनवाई के लिए पर्याप्त सबूत हैं या मामले को खारिज किया जा सकता है।’
...क्योंकि, अभी कोई चुनाव जो नहीं है
रतलाम में पिछले दिनों एक युवक की मौत हुई तो हिंदू समाज ने लामबंद होकर मौन जुलूस निकाल कर ज्ञापन सौंपा। परिजन का आरोप है कि युवक की मौत खाकी की लाठी से हुई। जिस घटना के बाद रतलाम का हिंदू समाज उद्वेलित हुआ उसे लेकर अब तक न तो प्रभारी मंत्री जिले में नजर आए और न ही विपक्षी दल के प्रदेश अध्यक्ष। कोई उस आदिवासी समाज के युवक के घर बैठने तक नहीं गया जिस समाज की चिंता देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी करते हैं। शायद सही समय पर बरती जाने वाली इसी उपेक्षा का ही परिणाम है कि जिले की आदिवासी सीट सैलाना न तो कांग्रेस के पास रह सकी और न ही भाजपा को ही ले पाई। शायद मौजूदा बेरुखी और उपेक्षा की वजह यह है कि अभी कोई चुनाव नहीं है
मीडिया से परहेज नहीं, साहब छांछ फूंक रहे हैं !
रतलामी गुस्से की गाज सबसे पहले खाकी वालों के तत्कालीन कप्तान पर गिरी जिन्हें घटना का कवरेज करने वाले मीडियावाले तत्समय असामाजिक तत्व ही नजर आ रहे थे। पुलिस की कार्रवाई से उद्वेलित शहर के हालत के बारे में ‘रतलामी संजय’ के माध्यम से सरकार के मुखिया तक पहुंची तो खाकी वर्दी वालों के ‘कप्तान’ को जिले से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। नए कप्तान की आमद हो चुकी है किंतु उनका मिजाज कैसा है और उनकी नज़र में मीडियावाले क्या हैं, यह जानने के लिए सभी उत्सुक हैं। पदभार ग्रहण करने से लेकर अब तक मीडिया की ओर से कई प्रयास हो चुके हैं कि नए कप्तान का रुख जान सकें और आगे क्या-कुछ होने वाला है, यह जान सकें। हालांकि, अभी तक इसमें सफलता नहीं मिल सकी है। इस बारे में विभागीय सूत्रों का मानना है कि- ऐसा नहीं लगता कि नए कप्तान को मीडिया से परहेज है। दरअसल, पुराने कप्तान रतलाम के ठंडे दूध से ही झुलस गए, इसलिए नए साहब छांछ में भी फूंक मार रहे हैं। जब उनके मुताबिक छांछ ठंडी हो जाएगी तब शायद वे रतलामी मीडिया से रूबरू हो पाएं।
‘गैंग वाले समाजसेवी’ से सावधान !
रतलाम में वर्चस्व की कई लड़ाइयां पूर्व में देखने को मिल चुकी हैं। प्रायः जिले और शहर में वर्चस्व जमाने के लिए अलग-अलग गैंग वालों में जूतम-पैजार और खून-खराब होता है लेकिन अब समाज में वर्चस्व स्थापित करने के लिए ‘गैंग वाले समाजसेवी’ भी सक्रिय हो गए हैं। पिछले दिनों ऐसे ही कुछ ‘गैंग वाले समाजसेवियों’ का चेहरा समाज के सामने आया तो सभी हैरान रह गए। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि ‘डफलिया’ और ‘शवानी’ जैसे ‘गैंग वाले समाजसेवियों’ से उन्हें भी हर पल सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि ये कभी भी, किसी की भी सुपारी किसी गैंगेस्टर को दे सकते हैं।
इनके झांसे से कोई नहीं बचा !
रतलामी जमीनों के जादूगरों के कारनामें जग-जाहिर हैं। ये सिर्फ जमीनें ही नहीं हथियाते या बेचते, इन्होंने तो अपने जमीर तक बेच दिए हैं। जमीनों को निगल रही भूख कम होने का नाम ही नहीं ले रही। इनके झांसे से सिर्फ स्थानीय निवेशक ही नहीं, वरन् अन्य राज्यों के धन-कुबेर भी फंसने से बच नहीं पाए हैं। कुछ गुजराती बंधुओं ने रुपयों की फसल काटने के लिए जमीनों के एक जादूगर के माध्यम से रतलाम की जमीन पर बोए थे। रुपयों की फसल काटना तो दूर, उन्हें बिजवारे के रूप में बोए (निवेश) किए गए रुपए भी नहीं मिल रहे। कुछ समय पूर्व उक्त गुजराती बंधु रतलाम का पग फेरा भी कर चुके हैं लेकिन उनके साथ ‘लौट के बुद्धू’ घर को आए वाली कहवात चरितार्थ हुई। अब गुजराती बंधु को यह कौन समझाए कि ऐसा कोई नहीं जिन्हें इन्होंने ‘झांसा-नी’ (धोखा नहीं) दिया।