‘हृदय में डोर, नहीं तो इनडोर बनाओ, पर दीवार मत बनाओ, दुर्मति तो दुश्मनी पैदा करती और सन्मति मित्रता बढ़ाती है’
आचार्य श्री विजयराजजी म.सा. के चातुर्मासिक प्रवचन रतलाम के समता शीतल पैलेस में जारी हैं। उन्होंने हृदय में डोर अथवा इनडोर बनाने का आह्वान किया।
छोटू भाई की बगीची में चातुर्मासिक प्रवचन के दौरान आचार्य श्री विजयराजजी मसा ने कहा
एसीएन टाइम्स @ रतलाम । आग जैसे सांसारी चीजों को जलाती है, वैसे ही क्रोध-द्वेष हमारे सदकर्मों का जला देते है। दुर्मति, दुश्मनी पैदा करती है और सन्मति मित्रता बढ़ाती है। ज्ञानी कहते हैं कि दुर्मति से बचोगे तो दुर्गति से बच जाओगे। दुश्मनी का भाव रहेगा, तो दुश्मनों की संख्या बढ़ेगी, इसलिए संसार में जीवन का एक ही लक्ष्य रखो कि दुश्मन नहीं हो। हृदय में यदि डोर नहीं बना सको, तो इनडोर बना लेना, लेकिन उसमें कभी दीवार नहीं बनने देना।
यह बात परम पूज्य प्रज्ञा निधि युगपुरुष आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। समता शीतल पैलेस छोटू भाई की बगीची में श्री हुक्मगच्छीय साधुमार्गी शान्त क्रांति जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में चातुर्मासिक प्रवचन के दौरान उन्होंने कहा कि डोर, इनडोर और दरवाजा बनाना हमारे हाथ में है। हृदय में यदि सबके प्रति प्रेम, मैत्री और सम्मान का भाव रहेगा, तो वहां डोर होगा और उसमें हर व्यक्ति प्रवेश कर सकेगा। यदि व्यक्ति केवल अपनों को ही हृदय में प्रवेश देना चाहेगा, तो उसमें इनडोर रहेगा। इसके विपरीत यदि हृदय में दीवार खड़ी रहेगी, कोई प्रवेश नहीं कर सकेगा। व्यक्ति के लिए अपनी सम्पत्ति को चोरों से बचाना आसान होता है, लेकिन खुद को दुर्मति से बचाना कठिन है। दुर्मति से बचने पर ही डोर, इनडोर और दरवाजे का अंतर समझ आता है।
क्षमा-प्रेम सन्मति का परियाचक, सजा-बदला दुर्मति का द्योतक
आचार्यश्री ने कहा कि महापुरुषों ने अपमान करने वाले के प्रति चार भाव बताए हैं। पहला सजा देना, दूसरा बदला लेना, तीसरा क्षमा करना और चैथा प्रेम करना। इनमें से क्षमा और प्रेम सन्मति के परिचायक है, जबकि सजा और बदला दुर्मति के द्योतक है। इन भावों से व्यक्ति समझ सकता है कि उसमें सन्मति कि दुर्मति है। दुर्मति हमेशा दुर्गति की और ले जाती है, जबकि सन्मति तो सदगति का मार्ग है। दुर्गति से बचने के लिए भावों में परिवर्तन आवश्यक है।
कर्म के बंधन से पाप का उदय होता है
उन्होंने कहा कि मान-अपमान, यश-अपयश आदि कर्मों के अधीन है। यदि कर्म का उदय होता है, तो कोई अपमान और अपयश नहीं मिलेगा, लेकिन कर्म का बंधन होगा, तो पाप का उदय करेगा। अच्छा व्यवहार दूसरों को शांति, सुकून देता है, जबकि बुरे व्यवहार से असंतोष होता है। व्यवहार में परिवर्तन लाना ही धर्म और साधना है। आरंभ में उपाध्याय, प्रज्ञारत्न श्री जितेशमुनिजी मसा एवं विद्वान सेवारत्न श्री रत्नेश मुनिजी मसा ने संबोधित किया। संचालन हर्षित कांठेड द्वारा किया गया।