शहीद दिवस 23 मार्च पर विशेष : मां भारती के सपूत शहीद भगत सिंह से ये सबक लें युवा

आज क्रांतिकारी भगत सिंह की शहादत का दिन है। इस मौके पर युवा साहित्यकार तथा भागत सिंह की पत्रकारिता समर में शब्द के लेखक अशीष दशोत्तर बता रहे हैं कि युवा भगत सिंह से क्या-क्या सीख सकते हैं। आइये, जानते हैं-

शहीद दिवस 23 मार्च पर विशेष : मां भारती के सपूत शहीद भगत सिंह से ये सबक लें युवा

आशीष दशोत्तर

शहीदे आजम भगत सिंह युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत आज भी बने हैं। ऐसे में युवाओं को उनके जीवन से पांच सबक लेकर अपने जीवन में उतारना चाहिए।

जोश : आजादी के प्रति भगत सिंह में इतना जोश था कि उन्होंने इसके लिए अपने मौत तक की परवाह नशहीदे आजम भगत सिंह ने अपनी फांसी के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को अपने साथियों के नाम लिखे पत्र में कहा था  "मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इस से ऊंचा में हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं है अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मध्यम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए, लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तान की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू करेंगी और देश की स्वाधीनता के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद है या तमाम शैतानी ताकतों के बूते की बात नहीं रहेगी।" 

जुनून : भगत सिंह जान चुके थे कि उनकी मौत अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ी मुश्किल साबित होगी और मौत से वे इतने अधिक लोकप्रिय हो जाएंगे जितना ज़िंदा रहते नहीं हो सकेंगे। इसीलिए भगत सिंह ने फांसी को हंसते-हंसते कुबूल किया। हज़रत मोहानी द्वारा दिए गए 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे को भगत सिंह ने अपनी ताक़त बनाया था।

चेहरा : आज युवा बात बात पर सेल्फी लेता है मगर युवाओं को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगत सिंह के जीवन में सिर्फ चार चित्र खींचे गए जो उपलब्ध हैं। एक चित्र स्कूल और दूसरा कॉलेज का है जिनमें वे सफेद पगड़ी धारण किए हुए हैं। तीसरे चित्र में वे एक खाट पर बैठे हैं और यह चित्र उस वक्त का है जब उनसे एक पुलिस अधिकारी बयान ले रहा था। चौथा क्षेत्र हेट लगा हुआ है जो युवाओं की सर्वाधिक पसंद और क्रांति का प्रतीक बना।

भगत सिंह की ये चार तस्वीरें ही उपलब्ध हैं

सोच : भगतसिंह धर्म को लेकर बहुत अधिक सतर्क एवं सजग थे। सामान्यतः उनके बारे में यह सोचा जाता है कि वे घोर नास्तिक थे। मग़र यह सच होते हुए भी सच नहीं है। सच इसलिए कि स्वयं भगतसिंह ने खुद को नास्तिक घोषित किया और असत्य इसलिए कि वे धर्म के उस रूप में नफ़रत करते थे जो मनुष्य को अकर्मण्य बनाता है। भगतसिंह धर्म के मामले में जैसे थे वैसे ही दिखना भी चाहते थे। उन्होंने धर्म को न सिर्फ नकारा बल्कि ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार किया। उनका यह विरोध खुद को श्रेष्ठ या अलग साबित करने के लिए नहीं था। उन्हें जब यह अहसास हुआ कि उनके साथी उनके इस नास्तिक स्वरूप के बारे में कुछ अलग विचार रखते हैं तो उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वे न तो गर्वित हैं और न ही आत्ममुग्ध। वे स्वयं को नास्तिक बताते हैं तो इसलिए कि वे यह महसूस करते हैं कि इसमें ही जीवन का सार है। 

छवि

ताक़त :  भगतसिंह तेईस वर्ष की आयु के ऐसे युवक थे जिनमें हर मुद्दे को लेकर एक तरह का आक्रोश सहज था। ऐसा आक्रोश इस आयु वर्ग के युवाओं में कई विषयों पर होता है। मग़र इस तरह के आक्रोश के प्रति वे कितना न्याय कर पाते हैं ? यह उस दौर के युवाओं में भी था। जब युवा अपनी परिस्थितियों अपने परिवेश, अपनी परम्पराओं और पारम्परिक मूल्यों से विद्रोह करता है, तो यह विद्रोह क्षणिक नहीं होता। उसे पता होता है कि इस विद्रोह का खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। भगतसिंह अध्ययन के जरिये स्वयं को इतना परिपक्व बना चुके थे कि उनमें हर कुतर्क का जवाब देने की ताक़त थी। 

आशीष दशोत्तर

 (लेखक भगतसिंह की पत्रकारिता पर पुस्तक ‘समर में शब्द‘ के लेखक हैं।) 

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