पुण्यतिथि पर स्मृति लेख : साहित्य के कोरे पन्नों पर जीवन के छन्द लिखे जलज जी ने- आशीष दशोत्तर

ख्यात साहित्यकार डॉ. जयकुमार जलज की 16 फरवरी 2025 को पुण्यतिथि है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण कराती युवा साहित्यकार, कवि और ग़ज़लकार आशीष दशोत्तर का यह लेख।

पुण्यतिथि पर स्मृति लेख : साहित्य के कोरे पन्नों पर जीवन के छन्द लिखे जलज जी ने- आशीष दशोत्तर
स्व. डॉ. जयकुमार 'जलज'

आशीष दशोत्तर

हिंदी साहित्य के दैदीप्यमान नक्षत्र, छायावादी दौर के साक्षी और वरिष्ठ गीतकार डॉ. जयकुमार 'जलज' ने कई पीढ़ियों को साहित्य की समझ दी। कई नए रचनाकारों को चलना सिखाया। जिन्होंने साहित्य की ज़मीन को उर्वर बनाया और उसे समृद्ध किया।

जलज जी का होना रतलाम के लिए ही नहीं पूरे साहित्य जगत के लिए एक विश्वास की तरह था। वे गीतों के अधरों की मुस्कान थे। ‌वे साहित्य के पृष्ठ पर जीवन के छंद लिखने वाले रचनाकार थे। जलज जी बहुत कम बोलते थे मगर जब बोलते थे तो पूरे मन से बोलते थे और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। उन्होंने कभी अपना गुणगान नहीं किया अपितु साहित्य जगत में उनका गुणगान किया। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक साहित्य साधना में रत रहे।

ललितपुर में जन्मे और इलाहाबाद में शिक्षित होने के बाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य से जुड़े जलज जी उच्च शिक्षा विभाग की सेवा में आए। इस दौरान जलज जी रतलाम में आए और यहीं के होकर रह गए। वे अक्सर कहा करते थे कि यहां मैं अकेला नहीं हूं। एक पूरा भूमि खंड है मेरे साथ। और इस भूमि खंड को उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से धनवान बनाया।

वे दुःख दर्द और अभाव में खड़े व्यक्ति के मन को समझने वाले रचनाकार थे। वे प्रकृति के जितने नज़दीक थे उतने ही मनुष्य की प्रवृत्तियों के भी समीप थे।

जलज जी कहा करते थे, 'कवि की चिंता केवल उसकी अपनी नहीं होती बल्कि वह समूची मानवता के लिए चिंतित होता है। वह पेड़-पौधों के प्रति चिंतित होता है। वह जल स्त्रोतों के प्रति चिंतित होता है। वह हर उस पीड़ा के प्रति चिंतित होता है जिसे वह महसूस करता है। वरना बरसात में भीगते व्यक्ति को मरुस्थल की चिंता भला कहां होती है?'

जलज जी ने अपने गीतों में इस चिंता को भी ज़ाहिर कर यह संदेश दिया कि मनुष्यता के तार इतने छोटे नहीं है जो सीमाओं के दायरे में क़ैद रहें। मनुष्य की आत्मा उसी तरह जुड़ी हुई है जैसे आसमान से बरसते जल और तपती पृथ्वी की आत्मा। वे प्रकृति के बिम्बों के माध्यम से मनुष्य के अभावों पर भी रोशनी डालते हैं। 

 मैं प्यासा रह गया ,बादलों के पनघट पर भी

 वे जो मरुथल में बैठे हैं, उनका क्या होगा?

 तप हो या सादा जीवन हो

 किससे भूख सहन होती है,

 सिर छप्पर के लिए तरसता

 काया बिना वसन रोती है।

 मैं तन के घावों को सीने में निश्शेष हुआ

 वे जो मन से भी घायल हैं उनका क्या होगा। 

श्रम और कर्म की साधना में विश्वास रखने वाले जलज जी ने अपनी साहित्य साधना से देश में जो स्थान पाया वह अद्भुत था। एक समय देश के शीर्षस्थ गीतकारों में जलज जी अग्रणी पंक्ति में शुमार रहे। जिस समय किसी पत्र पत्रिका में रचना छपना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, उस दौर में जलज जी की रचनाएं साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स में निरंतर छपा करती थीं। महादेवी वर्मा की पत्रिका में जलज जी की रचनाएं प्रमुखता से स्थान पाती रहीं। जलज जी ने छायावादी युग के रचनाकारों के साथ अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल गुज़ारे। महाकवि निराला को उनके सामने ही उन पर लिखी कविता सुनाना जलज जी के बस की ही बात थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रहने के दौरान हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक़ गोरखपुरी, डॉ. रामकुमार वर्मा और ऐसे अनेक विद्वान साहित्यकारों के बीच बैठने और रचना प्रक्रिया करने का अवसर जलज जी को मिला।

इन सब के बावजूद जलज जी में घमंड नहीं था। वे सभी से बहुत सहजता से मिलते थे। छोटे से छोटे रचनाकार को भी पूरे सम्मान के साथ संबोधित करते थे। आलोचनाओं से उन्होंने स्वयं को बहुत दूर रखा और सभी के विकास के लिए वे सदैव तत्पर रहे। जलज जी कहा करते थे कि एक नया रचनाकार जो साहित्य की ज़मीन पर चलने की कोशिश कर रहा है, उसे सहारा देना हमारा कर्तव्य है। यदि उसकी आलोचना कर हम उसे निराश कर देंगे तो हो सकता है वह यहीं ख़त्म हो जाए, लेकिन हमारे थोड़े सहारे से यदि वह इस ज़मीन पर ठीक चलता रहा तो हो सकता है कि एक दिन वह साहित्य की समझ को भी विकसित कर लेगा।

उनका यही स्वभाव उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता रहा। उन्होंने अपनी एक कविता में कहा- 

"दुःख की तारीफ़

विरह के सौंदर्य का वर्णन

आदमी की विवशता की कहानी है।

मानवीय इतिहास के असफल क्षणों में

प्राप्ति से बढ़कर प्रयत्नों को कहा होगा किसी ने।

हे विधाता,

तुम अगर कुछ हो कहीं तो मिलन दो मुझको।

कर्म पर ही दो नहीं अधिकार केवल

कर्मफल पर भी मुझे अधिकार दो।" 

जलज जी संवेदनशील रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में जो संवेदनशीलता नज़र आती है वह उनकी निजी ज़िंदगी में भी दिखाई देती है। अपने अवसान से कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने घर के बगीचे के लिए कुछ गमले खरीदे और उन गमलों में फूलों के पौधे लगाए। कहने लगे "इन पौधों में जब फूल खिलते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। प्रकृति के हम क़रीब रहे तो ही प्रकृति हमारे क़रीब आती है।" उन्होंने अपने घर के बाहर हरसिंगार का पेड़ लगा रखा था जिसके फूल ख़ूबसूरत चादर की तरह उनके आंगन में बिछ जाया करते थे। उनका यह स्वभाव ही उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता है। जलज जी प्रकृति के प्रति इतने संवेदनशील होकर अपनी बात कहते रहे। अपनी हर कविता में प्रकृति के बिम्बों का इस्तेमाल करते, तो वह उस खुलेपन का पक्ष लेते हैं जो मनुष्य को उड़ने के लिए प्रेरित करता, उसे अपने हाथ-पैर फैलाने की प्रेरणा देता। 

सघन हुए बादल

लो, फैल चले।

यहां-वहां सभी कहीं

नीले, सांवले, भरे भरे गहरे, कजरारे, काले।

आह ! उस रेखा को कैसे बचाऊंगा

जाने किस क्षण वह भी बरसे

मेरे ही द्वार से गुज़रे।

आह ! उस रेखा को कैसे पहचानूंगा। 

और न जाने कितने ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें जलज जी ने अपनी रचनाओं में बांधा। ऐसे सुंदर और मनोरम दृश्य सिर्फ़ प्रकृति का वर्णन भर नहीं हैं, बल्कि यह प्रकृति के साथ जीवन का तादात्म्य स्थापित करने के समान है। जब कवि मनुष्य और प्रकृति को एक होने की सीख देता है तो वह समूची सृष्टि को एक करने की बात करता है। वैमनस्य का विसर्जन और सौमनस्य का सृजन ही उसका मूल उद्देश्य होता है। जलज जी के इस प्रकृति प्रेम से भी उसी सृजनशीलता की प्रेरणा प्राप्त होती रही।

जलज जी अपने जीवन में साहित्य के प्रति पूरी तरह समर्पित तो रहे ही, विद्यार्थियों को संस्कार देने में भी अग्रणी रहे। उन्होंने विद्यार्थियों को जो सीख दी यह उसका ही परिणाम था कि रतलाम शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक के उपरांत 14 वर्षों तक प्राचार्य भी रहे। इस दौरान उनका कभी किसी से कोई विवाद नहीं हुआ और कोई उनसे कभी नाराज़ भी नहीं हुआ। यह उनकी सामंजस्य की प्रवृत्ति का परिणाम था। अपनी कविता "प्यार लो विद्यार्थियों मेरे" में वे विद्यार्थियों के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं और विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने के लिए स्वयं के कंधे उनके पैरों के तले रखने के लिए आतुर रहते हैं। यह स्वभाव ही जलज जी को विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय बनाता रहा। न सिर्फ़ विद्यार्थियों के बीच बल्कि अपने सहयोगियों के प्रति भी वे बहुत उदार रहे। वे सभी का विश्वास थे। कई शोधार्थियों ने उनके काव्य पर शोध कार्य किया। वे हिंदी, संस्कृत के साथ ही अपभ्रंश और पाली का भी अनुवाद कर साहित्य जगत को महत्वपूर्ण कृतियां प्रदान करते रहे। उनका सरल स्वभाव और सभी को सुनने और समझने की प्रवृत्ति सभी को सदैव प्रेरित करती रही। उन्होंने अपनी एक कविता में कहा- 

अकेले यूं ही

बड़े नहीं हो जाते पेड़।

वर्षों तक पकती है ज़मीन, तपती है धूप

हवा को लगाने पड़ते हैं चक्कर

बरसना पड़ता है बादलों को साल दर साल।

धीरे-धीरे ही खुलती है आंखें अच्छाइयों की। 

जलज जी उजियारे के रचनाकार थे। उनका गीत "रोशनी उगने का एक जतन और, अभी एक जतन और" पूरे देश में प्रेरक गीत के रूप में गाया जाता रहा। वे अपने गीतों के माध्यम से पूरे देश में पहचाने जाते रहे। साहित्य के प्रति उनका लगाव इतना अधिक था कि वे अंतिम समय में भी पुस्तकों को पढ़ने और कुछ नया लिखने के लिए बेचैन रहते थे। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने मुझे एक बार फोन कर बुलाया और बहुत आत्मीयता से कहा, "मैंने तुम्हारे लिए कुछ किताबें निकाली हैं। इन्हें ले जाओ और पढ़ना।"

मैंने कहा, 'सर ! ये तो बहुत दुर्लभ किताबें हैं।'

वे हंसते हुए कहने लगे, 'अभी इनसे दुर्लभ किताबें और बची हैं। वे किताबें फिर कभी दूंगा।'

उन किताबों में से कुछ किताबें पढ़ने के बाद मैंने फिर से उन्हें फोन किया कि, 'सर ! मैंने इतनी किताबें पढ़ ली हैं। वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बहुत आशीर्वाद दिया।

इसके कुछ ही दिनों बाद उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रीति जलज के अवसान ने उन्हें बहुत व्यथित कर दिया। अपनी सहधर्मिणी के गुज़रने के एक सप्ताह बाद उन्होंने एक स्मृति गीत लिखा, जो उनका अंतिम गीत था। 

एक पक्षी की तरह तुम उड़ गई

ताकता मैं रह गया आकाश को।

 

विधाता ने दिया तो जीवन हमें,

पर लगामें हाथ में अपने रखी,

कभी करता प्यार देता छूट वह,

कभी दिखलाता अचानक बेरुख़ी।

बुलावा आया अचानक छूट कर चल दी

दोष क्या दूं स्वयं के भुजपाश को।

 

नयन थे मेरे, निरंतर देखती तुम थीं,

पांव थे मेरे मगर बस तुम्हीं चलती थीं,

जब मुझे कुछ सूझ पड़ता था नहीं,

तुम दिए की तरह से निष्कंप जलती थीं।

हे विधाता ! क्या किया तुमने कहो

ले गए तुम तोड़ हर विश्वास को।

 

जहां भी तुम हो बताओ क्या करूं मैं,

भरा दुःख का घट इसे कितना भरूं मैं,

चाहती जो तुम उसे अब भी करूंगा मैं

ठीक है अब ख़ुद जलूंगा, ख़ुद चलूंगा मैं।

मानने तुमने नहीं दी हार जीवन में,

रखूंगा जीवित इसी अभ्यास को। 

आज जलज स्वयं एक पंछी की तरह हमारे बीच से उड़ चुके हैं लेकिन उनकी रचनाएं, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे साथ है जो सदैव हमें उन्हें अपने बीच बनाए रखेगा।

आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर

रतलाम (म.प्र.)

मो. न. 9827084966