कवि और कविता : 'अपनी बेगुनाही का सबूत भी नहीं दे सकते हम...'

कवि और कविता में पढ़ें बंशीलाल गांधी का काव्य सृजन। अपनी बेगुनाही का सबूत भी नहीं दे सकते हम...। आशीष दशोत्तर की कलम से।

कवि और कविता : 'अपनी बेगुनाही का सबूत भी नहीं दे सकते हम...'
बंशीलाल गांधी

आशीष दशोत्तर

कविता मनोभावों की अभिव्यक्ति है। यह भाव स्वत: मनुष्य को सृजनशील बनाते हैं। हर व्यक्ति के भीतर एक कविता मौजूद रहती है, मगर उसे अभिव्यक्त करना और लेखनी के ज़रिए उसे कागज़ पर उतारना बहुत मुश्किल होता है। जीवन की आपाधापी के बीच मनुष्य कविता से दूर हो रहा है और इसी दूरी के कारण मनुष्य अविवेकी होता जा रहा है। 

कविता मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए बहुत ज़रूरी है। यह कविता ही मनुष्य को भीतरी ऊर्जा प्रदान कर सकती है। जिन्होंने इस ऊर्जा को महसूस किया वे कविता से जुड़कर अपने जीवन को सृजनशील बनाते रहे। जो व्यक्ति कविता से जुड़ा वह हर क्षेत्र में सृजन से जुड़ा रहा। ऐसे ही सृजनशील रचनाकार श्री बंसीलाल गांधी भी सृजन के साथ निरंतर जुड़े रहे। उनके पहचान यद्यपि एक राजनेता के रूप में अधिक रही मगर उनके साथ उनका कवि भी हरदम गतिमान रहा। राजनीति केल फलक पर वे कांग्रेस के स्थानीय से केंद्रीय स्तर तक अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे तो शायद इसके पीछे उनके भीतर का कवि ही उन्हें शक्ति प्रदान करता रहा होगा।

श्री गांधी के यहां कविता एक वक्तव्य की तरह नहीं आतीं। वे कविता को बहुत गहराई से महसूस करते नज़र आते हैं। उनकी कविता में एक अंतर्द्वंद भी नज़र आता है। मनुष्य के भीतर उठने वाली भावनाएं, भीतर ही भीतर चल रहा ऊहापोह भी अभिव्यक्त होता है।

हमारे भीतर एक दुमकटा महासर्प 

रेंगता रहता है, फन उठाए, सदा सचेत।

यह सर्प हमारी ही शिराओं और धमनियों पर 

अपने लप-लपाती नुकीली पतली जीभ रख कर 

अपना जीवन रस चूसता है।

अपनी ज़हर की गांठ को ज़हरीला बना कर 

घूमता है 

यह हमारा भीतरी सर्प ही हमें 

चैन की सांस लेने नहीं देता।

यही भीतरी बेचैनी कवि को इससे आगे सोचने पर विवश करती है। जब मन बेचैन होता है तो वह हर परिस्थिति को उसी दृष्टि से सोचता है। यह संभव है कि उस बेचैनी को दूर करने के कई सारे मार्ग हो सकते हैं मगर भीतर की बेचैनी व्यक्ति को उस राह की ओर उन्मुख करती है जहां से वह इस बेचैनी को दूर कर सके। कवि इस बेचैनी को बखूबी महसूस करता है। उसकी संवेदनशीलता ही उसे इस तरह की बेचैनी को महसूस करने की ताक़त प्रदान करती है।

भविष्य को आंखें मूंद 

मनुष्य के अंतर में डूब जाने दो।

अतीत की अंतरआत्मा को 

खूंटी पर टांग दो 

तभी तुम्हारा वर्तमान 

अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा,

संसार को चुनौती देता हुआ 

आगे बढ़ सकेगा।

मनुष्य के अंतर में डूबा हुआ भविष्य

तरलता की कई -कई परतों को चीर कर

और कर्म के रंगों में रंगा हुआ अतीत

हवा का झोंका बन तुम्हारे सच को बुहारेगा। 

यह माना जाता है कि कवि के मन में वेदना से ही काव्य भाव उत्पन्न हुए। जब वह समाज की विषमता को देखता है, वहां मौजूद अव्यवस्थाओं को देखता है, एक आम आदमी के जीवन पर लगे हज़ार प्रतिबंधों को महसूस करता है, तब उसकी वेदना उभर कर सामने आती है और यही वेदना कविता के रूप में अभिव्यक्त होती है। कवि की संवेदनशीलता हर मनुष्य के साथ जुड़ी होती है। वह स्वयं हर मनुष्य का प्रतिबिंब होता है। कवि किसी भी मनुष्य से स्वयं को पृथक नहीं कर सकता। मनुष्य ही क्या, कभी किसी भी प्राणी से अपने आपको अलग नहीं कर सकता। प्रथम कविता का जन्म ही एक क्रौंचवध से उत्पन्न पीड़ा से हुआ था। ऐसे में कवि के मन में हर व्यवस्था के प्रति बेचैनी होना स्वाभाविक है। यहां भी कवि के मन में एक बेचैनी साफ़-साफ़ नज़र आती है। यही बेचैनी उसके भावों को विस्तार प्रदान करती है। साथ ही वह इस बेचैनी को पैदा करने वाले कारणों और उन से निजात पाने की राह भी खोजता है।

जब बाहरी आतंक, भय, चिंता से हम 

तनिक से मुक्त हो विश्राम करते हैं 

यह सर्प तब नुकीले दांत से अपने नसों में 

और मांसपेशियों में हमारी 

भीतर ही भीतर ज़हर उतारता रहता है।

एक आत्मिक दंश की पीड़ा से 

तिलमिलाकर हम समूह चेतन जाते हैं 

किसी तनी हुई प्रत्यंचा के समान 

हमारा मानसिक लिजलिजा फैलाव 

यकायक तनाव से आक्रांत 

हड़बड़ा कर विचारों पर टूट पड़ता है। 

बंसीलाल गांधी के यहां यह वैचारिक द्वंद्व बार-बार उभर कर सामने आता है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पारिवारिक परिस्थितियों से घिरा मनुष्य कई बार अपने रचनाओं के ज़रिए इस वैचारिक द्वंद्व को व्यक्त करता है। यह स्वाभाविक भी है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी। वह चाह कर भी स्वयं को समाज से अलग नहीं कर सकता इसीलिए कवि को, एक रचनाकार को सभ्य समाज का प्रतिनिधि माना जाता है। यह भी विश्वास किया जाता है कि वह समाज के उस व्यक्ति की आवाज़ को बुलंद करेगा जो अपनी बात कहने में असहाय और अक्षम है। 

ज़मीं के रंग-ओ-बू में 

ऐसा उलझा आदम ,

कि ताउम्र भागते रहना 

फितरत बन गई उसकी।

ज़िंदगी की जुल्फों के 

पेचोख़म सुलझाते हुए

उंगलियों के पोरों से 

लहू बहने लगा उसकी। 

बंसीलाल गांधी के यहां दृष्टि का विस्तार बहुत है । यद्यपि वे जिस परिवेश से जुड़े रहे वहां भिन्न-भिन्न मनुष्य से संपर्क, पीड़ित और प्रताड़ित व्यक्तियों की वेदना को समझने का और देखने का उन्हें काफी अवसर मिला। एक जनप्रतिनिधि के रूप में प्रतिदिन इस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। एक रचनाकार उन परिस्थितियों को देखता भी है, समझता भी है और महसूस भी करता है । व्यवस्था में चाहे वह उन परिस्थितियों का समाधान करने में अधिक सफल न हो पाए मगर अपनी रचनाधर्मिता के ज़रिए उसकी पीड़ा को सामने अवश्य लाता है । बंसीलाल गांधी के यहां भी इस तरह की पीड़ा बार बार उभर कर सामने आती है। यही उनकी रचनात्मक सोच को पुष्ट करती है। श्री गांधी के यहां भी ये संवेदनाएं रचनात्मकता के साथ आती हैं।  

मंथर गति से चल रहे जहाज को 

हम आंधी तूफान की आशंका से आतंकित

भीतरी हड़बड़ाहट और घबराहट में डुबो देते हैं,

तली से बुलबुले भी उठकर 

हमारे भावांकुरों के गर्भाधान होने की 

सिफारिश नहीं करते और हम 

कई डूबे हुओं के समान 

आत्मदंश की पीड़ा को अहसासते 

उठते, गिरते रहते हैं,

और हमारे भीतर का सर्प हमारे भीतर 

नए-नए बिलों की खोज में 

अपनी ज़हरीली जीभ लपलपाता घूमता फिरता है 

हमारे भीतर निशंक, निर्द्वंद्व और हम 

अपनी बेगुनाही का सबूत भी नहीं दे सकते।

लपलपाती जीभ के सामने मौजूद और अपनी बेगुनाही का सबूत न दे पाने के कारण मनुष्य की पीड़ा सहजी समझी जा सकती है। 9 सितंबर 1939 को जन्मे श्री बंसीलाल गांधी निरंतर सृजनशील रहे। अपने राजनीतिक सफर में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे। वे इस पथ पर अपनी मौजूदगी दिखाते रहे और कविता काफी पीछे रही, मगर उन्होंने कविता का दामन कभी नहीं छोड़ा। वे निरंतर सृजनशील बने रहे और अपने साथियों के बीच उन कविताओं के साथ अपने भीतर के विचारों को मुखर भी करते रहे।  

अच्छा यही है समझौता कर लें

हर दुःख से, हर आफत से,

बहुत मिलेंगे यहां विरोधी 

किस-किस से झगड़ा लेगा।

लाख करें कोशिशें 

चुपचाप गुज़र जाए दुनिया की राहों से 

किंतु असंभव सूखी पत्तियों की छाती पर चल लेना 

मन की आशाएं परवशता की जंजीरों में 

ऐसी जकड़ी हैं कि 

थोड़ा हिलने पर भी आहट तो कर देना। 

उनकी कविताएं समय-समय पर सामने आती रही। यह संख्या में भले ही कम रही हो मगर इनकी ताक़त कभी कम नहीं हुई। उनकी कविताओं से उभरे रचनाकार को समझना उस व्यक्ति के बूते की बात नहीं जो उन्हें सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्ति ही समझता है। उनका रचनाकार स्वरूप उन्हें उससे बिल्कुल पृथक करता है। उनकी कई सारी अप्रकाशित रचनाएं भी प्रकाश में आना है और इन रचनाओं के सामने आने के साथ उनकी एक अलग छवि रचनात्मक क्षेत्र में उनकी उपस्थिति का आभास कराएगी, यह उम्मीद की जाना चाहिए।  

आशीष दशोत्तर

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