ऐतिहासिक दस्तावेज है 'घर के जोगी' -संजय परसाई 'सरल'

रतलाम के युवा साहित्यकार आशीष दशोत्तर ने नवीन कृति ‘घर के जोगी’ के माध्यम से अपने गांव के सिद्ध रचनाकारों को पुस्तकाकार कर नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए एक दस्तावेज उपलब्ध कराया है। पढ़िए- संजय परसाई सरल द्वारा की गई इसकी समीक्षा।

ऐतिहासिक दस्तावेज है 'घर के जोगी' -संजय परसाई 'सरल'
पुस्तक चर्चा।

संजय परसाई 'सरल'

रतलाम इन दिनों ऐतिहासिक दस्तावेजों का शहर बनता जा रहा है। पूर्व में इतिहासकार नरेंद्रसिंह पँवार का 'परमार कालीन राजवंश का इतिहास' प्रकाशित हुआ था तो विगत दिनों इतिहासकार ललित भाटी की पुस्तक 'रतलाम का इतिहास' का प्रकाशन हुआ। हाल ही में आलोचना पर केंद्रित वरिष्ठ रचनाकार आशीष दशोत्तर की बोधि प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'घर के जोगी' आई है। 'घर का जोगी' दिवंगत और वर्तमान में सक्रिय रचनाकारों पर केंद्रित एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जो आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शित करेगी।

आशीष दशोत्तर साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपना दखल रखते हैं, वो चाहे गीत, ग़ज़ल, कविता, दोहा, आलेख या समीक्षा हो। सभी में बराबर अपनी पेठ बनाते हुए किसी भी विधा में कमतर नहीं कहा जा सकता।

सद्य: प्रकाशित 'घर के जोगी' आशीष के अथक परिश्रम का परिणाम है। अपनी उम्र से तीन से चार दशक पूर्व के रचनाकारों की सामग्री को तलाशना और उस पर अपनी सधी हुई कलम से पुस्तकाकार करना उनकी साहित्यिक साधना का ही प्रतिफल कहा जा सकता है।

'घर के जोगी' में वे कविता, गीत, ग़ज़ल सभी विधाओं में अपनी कलम के साथ न्याय करते हुए सम्मिलित रचनाकारों के साथ भी उतना ही न्याय करते दिखाई देते हैं। यही कारण है कि इस पुस्तक की सर्वत्र प्रशंसा वाज़िब ही कही जा सकती है।

कविता पर अपनी बात रखते हुए वे कहते हैं कि 'बहरहाल कविता की ताकत आज भी कायम है। भले ही इस क्षेत्र में कई अकवि प्रवेश कर गए हों, भले ही विचारों को कुंद करने का प्रयत्न जारी हो, भले ही शब्दों की गरिमा को ठेस पहुंचाई जा रही हो, फिर भी कविता आज भी पूरी ताकत के साथ खड़ी है। क्षणिक उत्तेजना या तात्कालिक विचारों की अभिव्यक्ति कविता नहीं है। विचार भीतर जन्म लेता है और एक लंबे समय तक पकता रहता है। एक समय बाद कविता आकार लेती है जब वह साकार रूप लेती है तो एक वैचारिक पृष्ठभूमि के लिए धरातल प्रस्तुत करती है। ऐसी कविता हर वक्त प्रासंगिक हुआ करती है।'

आगे वे कहते हैं कि 'यह किताब जमीन से जुड़े ऐसे ही घर के जोगियों की है जिन्हें स्थानीय बोली में तो 'जोगड़ा' कहा जाएगा। वो कहावत तो आपने सुनी होगी 'घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध'। आशीष ने इस पुस्तक में घर के जोगियों को 'जोगड़ा' ना कहते हुए अपने ही गांव का सिद्ध कहने की कोशिश की है। वे 'दिया तले अंधेरे' वाली कहावत पर भी चोट करते हुए यह सिद्ध करने में सफल हुए हैं कि हमारे गांव या शहर के रचनाकार 'जोगड़ा' नहीं बल्कि हमारे गांव के सिद्ध ही हैं। वह रतलाम के रचनाकारों की पूरे काव्य जगत में पहचान बनाने में सफल हुए हैं। वह ऐसे रचनाकारों को भी साहित्यिक फलक पर प्रकाशित करने में सफल हुए हैं जिनके नाम तक दो-तीन दशक की पीढ़ियों ने नहीं सुने थे।

वे इस बात को भी प्रमुखता से उठाते हैं कि आजकल अकादमियां और साहित्यिक संस्थान कविता, कला के नाम पर सिर्फ फूहड़पन परोस रही हैं? जुमलेबाजी, चुटकुलेबाजी, सोशल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना ही क्या सिर्फ कविता का अर्थ रह गया है? यदि जिम्मेदार अकादमिक संस्थाओं की सोच ऐसी है तो यह न सिर्फ आज के लिए बल्कि आने वाले वक्त के लिए बहुत खतरनाक है।

नई पीढ़ी को लेकर भी वे चिंतित दिखाई देते हैं। वे कहते हैं कि 'वास्तव में कविता है क्या और कविता का असर क्या होता है यह नई पीढ़ी को जानना जरूरी है। अतः कहा जा सकता है कि इसी चिंता को मद्देनज़र रखते हुए आशीष ने इस आलोचना पुस्तक में उन रचनाकारों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिनकी रचनाओं को पढ़कर नई पीढ़ी यह जान सके की कविता क्या है और क्या होना चाहिए। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि घर के जोगी को आन सिद्ध करने का यह प्रयास नई पीढ़ी सहित अन्य पाठक वर्ग को मार्गदर्शित करते हुए एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उल्लेखित होगी। 

पुस्तक : घर के जोगी

लेखक : आशीष दशोत्तर

मूल्य : 499₹

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)

-----

संजय परसाई 'सरल'

118, शक्तिनगर, गली नं. 2

रतलाम (मप्र)

मोबाइल फोन नंबर 9827047920