कवि और कविता : मोह गिरवी है हमारा, उस विधि के हाथ मेंं
कवि और कविता संख्या में आज जानते हैं प्रसिद्ध कवि पीरुलाल बादल के काव्य सृजन की खासियत के बारे में। बता रहे हैं युवा साहित्यकार और कवि आशीष दशोत्तर।
आशीष दशोत्तर
कविता जीवन का सार है। इसे कोई समझे या न समझे, माने या न माने, मगर इस बात को महसूस तो अवश्य करेगा कि कविता हर व्यक्ति के जीवन में उसके साथ साथ चलती है। यह कविता कब उसकी भावनाओं को कागज़ पर उतार दे, यह कहा नहीं जा सकता। जब यह कागज़ पर उतरती है तो एक रचनाकार का जन्म होता है और उसे एक दिशा मिलती है। यह किसी रचनाकार पर निर्भर करता है कि वह अपने लेखन की दिशा को किस तरह प्रवृत्त करे, किस विचार के साथ चले, किन लोगों के पक्ष में अपनी बात कहे और अपनी रचना प्रक्रिया को किस तरह विस्तारित करे।
हिंदी मालवी और भीली में एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करने वाले कवि श्री पीरुलाल 'बादल' ऐसे ही रचनाकार थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के ज़रिए सामाजिक यथार्थ को सामने लाने की कोशिश की। हालांकि उन्हें एक मंचीय कवि के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली और उन्होंने अपने हाव-भाव, रहन-सहन एवं बोलचाल से लोगों को गुदगुदाने का प्रयास किया। इसमें वे सफल भी रहे मगर उन्होंने सही अर्थों में आम जन जीवन से जुड़ी रचनाएं लिखकर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता समय-समय पर अभिव्यक्त की।
उड़ गए पखेरू प्रातः की तलाश में
शाम सो गई है, रात के बहुपाश में,
जीवन की पीड़ा पी गई नौ मास में
उठा लेगा काल हमें एक ग्रास में।
पीरूलाल बादल जी ने मंच के मनोविज्ञान को बेहतरी से समझा था। वे मंच की तरफ प्रवृत्त हुए और कई मंचों को उन्होंने लूट लिया। पचास वर्षों तक देश के मंचों पर अपनी कविताएं पढ़कर उन्होंने वाचिक परंपरा को तो समृद्धि किया ही साथ ही अपनी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश, सरल शब्दावली और मेल-जोल की भाषा का प्रयोग कर साहित्य को जन-जन तक पहुंचाया।
उनकी कई लोकप्रिय रचनाएं लोगों की ज़ुबान पर चढ़ी रही। उन्होंने अपनी मंचीय कविताओं के ज़रिए राजनीति पर कटाक्ष किए, व्यवस्था पर व्यंग्य भी किए और अव्यवस्था पर प्रहार भी किए। इसके बावजूद उन्होंने मंच की निम्न स्तरीय भाषा से सदैव परहेज किया। यही कारण रहा कि वे मंच पर निरंतर सक्रीय रहने के बाद भी साहित्यिक वातावरण से जुड़े रहे। उन्होंने मंचीय प्रस्तुति में हिंदी के अतिरिक्त मालवी और भीली भाषा में भी रचनाएं सुनाकर लोगों को आनंद प्रदान किया। वे अक्सर इस बात को रेखांकित भी किया करते थे कि कविता ने उन्हें किस तरह मुसीबत से बचाया। ग्रामीण अंचल में नौकरी के दौरान सुनसान इलाके से गुज़रते समय जब उन्हें लूटने के इरादे से कुछ लुटेरों ने उन्हें घेर लिया तब कविता सुनाकर वे बड़ी मुसीबत में घिरने से बचे। इसीलिए बादल जी कविता की ताक़त को समझते थे और अपनी कविता को भी उसी ताक़त के साथ प्रस्तुत किया करते थे।
ये सागर है इसमें तेरी भी नाव है
कइयों का रोटी, धंधा चुनाव है।
माना शर्मिला तेरा स्वभाव है,
देश की छाती पे कई गहरे घाव हैं।
बादल जी मंच पर जितने सक्रिय रहे उतने ही गंभीर साहित्य सृजन में भी लगे रहे। वे किसी समय शहर में होने वाली गंभीर नशिस्तों में भी शामिल हुए जिसमें उस्ताद शायर और कवि उपस्थित हुआ करते थे। ऐसी नशिस्तों में उन्होंने अपनी रचनाएं भी पढ़ी। लिहाजा वे साहित्य के उस रंग से भी वाकिफ़ थे। उनकी रचनाएं निरंतर और गति पकड़ती यदि वे मंच की ओर उन्मुख नहीं हुए होते, मगर मंच पर आने के बाद उन्होंने अपनी रचनात्मकता को आम श्रोता की पसंद के मुताबिक ढालते हुए राजनीतिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अपनी रचनाएं लिखीं। उनकी रचनाएं ऐसी थी जिसमें भरपूर हास्य था। वे कई बार कहा करते थे कि मेरी रचनाएं सुनने के बाद कई लोग कहते हैं कि समझ में तो कुछ नहीं आया लेकिन मज़ा बहुत आया। मंच से मज़े के लिए उन्होंने काफी कुछ कहा और यहीं उन्हें इतनी लोकप्रियता दिला गया।
तू है पढ़ा-लिखा नहीं इसकी फिकर न कर
तू जेल भी गया मगर इसकी फिकर न कर,
तू हाथों हाथ भी बिका इसकी फिकर न कर,
तू गुंडों से सबकुछ सिखा इसकी फिकर न कर।
चांद पे मानव चढ़ा तू उसके माथे चढ़।
बादल जी के एक पैर में तकलीफ़ होने से वे ठीक से चल नहीं पाते थे, मगर इस ऐब को भी उन्होंने अपनी खूबी में बदल लिया था। बचपन में इलाज के दौरान उनके साथ हुए हादसे का ज़िक्र करते हुए भी बताते थे कि किस तरह नासमझी ने उनके अच्छे-भले पैर को यह पीड़ा दे दी। इसके बाद भी वे निरंतर सक्रिय रहे।
जब कोई व्यक्ति रचनात्मकता से जुड़ता है तो उसका प्रभाव उसके जीवन पर भी पड़ता है। बादल जी के जीवन में भी यही सब कुछ होता रहा। वे जीवन में कई तरह के संघर्षों से गुज़रे और इन संघर्षों ने उन्हें लिखने की प्रेरणा दी। वे प्रकृति के गीत भी लिखते रहें। राजनीति पर उन्होंने काफी कटाक्ष किए। अपनी सरल भाषा में और सीधी- सीधी शैली में कही गई बात काफी प्रभावी ढंग से श्रोताओं तक पहुंचती रही।
चमचों की भीड़ में सदा घिरा रहेगा तू,
संसद की अंगूठी का हीरा रहेगा तू,
उमर खयाम तो कभी कबीरा रहेगा तू,
मतदाता डूब जाए पर तिरा रहेगा तू,
किस्मत पे अपनी आज तू अपना अंगूठा जड़।
अपने अंचल के लोगों में व्याप्त प्रवृत्तियों, प्रसंगों, तीज त्यौहार और जीवन शैली को भी उन्होंने अपनी रचनाओं में शामिल किया। मंच पर उनकी रचनाएं सुनना एक अलग अनुभव हुआ करता था मगर जब कभी वे काव्य के जानकारों के बीच में बैठते और वहां पर अपनी कविता सुनाते तो उस कविता को सुनकर उनके अलग ही रूप को देखा जाता था। यही कारण था कि वे गंभीर साहित्यिक आयोजनों में भी अपनी प्रभावशाली रचनाओं के माध्यम से सभी का स्नेह पाते रहे।
नीड़ सूना, बीड़ सूना
भोर चहुंओर सूना।
दर्द खर्च से हमेशा
बढ़ रहा है और दूना।
हंसमुख और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी रहे बादल जी अंतिम समय में शारीरिक पीड़ा से काफी परेशान रहे। इसके बावजूद उन्होंने कभी अपने चेहरे से मुस्कान गायब नहीं होने दी। ऑक्सीजन सिलेंडर के सहारे वे सांस लेते रहे मगर उनकी हर सांस में उनकी अपनी ज़िंदगी अभिव्यक्ति होती रही। मिलने आने वालों से उसी मुस्कुराहट के साथ मिलते। यह उनकी जीवटता थी। वे जीवन और मृत्यु के सत्य को भली भांति जानते थे। इसे उन्होंने अपनी रचनाओं में भी अभिव्यक्त किया।
जाने के साथ हैं
मौत का संबंध
लौट आना माझी
तुझे मेरी सौगंध।
सूनी गैल में हमारे
कौन होगा साथ में
मोह गिरवी है हमारा
उस विधि के हाथ में।
रचनाकार अपनी रचनाओं के साथ सदैव मुस्कुराता रहता है। बादल जी भी अपनी रचनाओं के ज़रिए आज भी अपनी मुस्कुराहट बिखेर रहे हैं। उनकी अपनी शैली, उनका अपना प्रभाव और उनके अपने तेवर भला कब विस्मृत हो सकते हैं।
आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड, रतलाम (म. प्र.)
मो. 9827084966