नीर-का-तीर : ‘अंधों के हाथ बटेर’ लगी या ‘बंदर के हाथ उस्तरा’, यह रतलाम की पब्लिक है सब जानती है

नीर का तीर में इस बार पढ़िए- भरोसे की भैंस के पाड़ा जनने, अंधे के हाथ बटेर लगने और बंदर के हाथ उस्तरा लगने की बात।

नीर-का-तीर : ‘अंधों के हाथ बटेर’ लगी या ‘बंदर के हाथ उस्तरा’, यह रतलाम की पब्लिक है सब जानती है
नीर का तीर।

नीरज कुमार शुक्ला

रतलाम कहते हैं कि ‘भरोसे की भैंस पाड़ा जनती है’, पाड़ा जने तब तक तो ठीक है, क्योंकि वह तो फिर भी काम ही आता है। इस मामले में रतलामवासियों की नियति दूसरों से ज़ुदा है। यह विडंबना ही है कि यहां उनके भरोसे की भैंस प्रायः जुमले ही जनती है। नियति के हाथों छली जा चुकी जनता इन दिनों ‘अंधों के हाथ बटेर लगने’ और ‘बंदर के हाथ उस्तरा लगने’ जैसी लोकोक्तियां और मुहावरे एक-दूसरे से सुन-सुना रहे हैं।

तलाश सुपारी लेने वालों की...

कहने में तो यह सब हमें भी बुरा लग रहा है लेकिन क्या करें हमारा पेशा ही दृष्टि होते हुए भी आंखें मूंद लेने वालों को समय-समय पर जगाने का है। हम और हमारी जमात के लोग इस प्रयास में लगे भी हैं लेकिन दिक्कत उन ‘गांधारियों’ से है जिन्होंने अपने ‘धृतराष्ट्रों’ को खुश करने/रखने के लिए अपनी आंखों में ‘अनदेखी की पट्टी’ बांध ली हो। खबर है कि ऐसे धृतराष्ट्र ऐसे लोगों की तलाश कर रहे हैं जो उनके ‘सुख-चैन’ में खलल डालने वालों की सुपारी ले सकें। उन्हें ये गुमान है कि यदि सुपारी लेने वाला नहीं मिला तो वे खुद सुपारी कतर सकते हैं।

ये रत्न हैं कमाल के...

रतलाम का प्राचीन नाम रत्नपुरी भी बताया जाता है जहां बेशकीमती रत्न भी हैं और बे-कीमती भी। कई बार लोग भ्रमवश अपने मुकुट में बेशकीमती रत्न की जगह बे-कीमती रत्न सजा लेते हैं। ऐसे ही कुछ कथित रत्नों की पोल हाल के दिनों में खुली है, ये ‘नगर के सिंहासन’ से लेकर ‘राजनीतिक दलों की कुर्सियों’ तक में जड़े हैं। अपना पानी (चमक) उतारने में ये खुद ही लगे हुए हैं और जगहंसाई की वजह बन रहे हैं, क्योंकि ये पब्लिक है सब जानती है। नगरीय निकाय चुनाव के दौरान ऐसे कई प्रयोग हुए जो अब भरोसे की भैंस वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रहे हैं।

यह अंधेरा यूं ही कायम रहे...

शहर छोटा है इसलिए बंद कमरे की चर्चाएं भी कानों तक पहुंच जाती हैं और अगर बात सार्वजनिक जगहों पर कही गई हो तो फिर उसका दबा रह पाना मुश्किल है। ऐसे ही खबर शहर के पटरी पार के एक रत्न से जुड़ी बताई जा रही है। हुआ यूं कि- किसी ने सैलाना बस स्टैंड चौराहे और राम मंदिर के सामने लगने वाले जाम के लिए एक समाधान सुझाया। रतलाम में समस्या का समाधान, ऐसे भला कैसे हो सकता है। चर्चा के दौरान मौजूद सत्ताधारी दल के मुकुट में जड़े एक रत्न ने तपाक से कह दिया, कि- अगर समस्या हल हो जाएगी तो पटरी पार क्षेत्र और हमारा रुतबा कैसे पता चलेगा ? कहा जा रहा है कि इस रत्न को लोग ‘शिव-परिवार’ के सदस्य की सवारी के रूप में पहचानते हैं।

हर गांधी महात्मा नहीं होता...

‘गांधी’ शब्द सुनते ही सिर श्रद्धा से झुक जाता है, लेकिन जिसके लिए सिर झुकता है वे मोहनदास करमचंद गांधी थे जिन्हें सब राष्ट्रपिता कहते हैं। अब जरूरी नहीं कि जिस भी नाम के आगे गांधी लगा हो वह भी उनके जितना ही सद्चरित्र, सात्यनिष्ठ और कर्त्तव्यनिष्ठ हो। जी, हां ! आप सही समझे। हमारा शहर के उन्हीं ‘गांधी’ की तरफ है जो हाल में कहीं सुर्खी बने। ये गांधी उन सतरंगी कागजों के लेन-देन के कारण चर्चा में जिन पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर छपती है। उन्होंने गांधी छाप कागज किसके कहने पर क्यों लिए, इसकी सफाई देकर खुद को उसी प्रकार पाक-साफ बता दिया जिस प्रकार पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान से प्रेरित होकर रतलाम शहर को स्वच्छ और सुंदर बताया जा रहा है।

किसकी हिम्मत से हिट हुई पिक्चर

कभी दशकों तक सत्ता में काबिज रहे पार्टी के स्थानीय नेता एक बार फिर सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रहे हैं। यह ख्वाब उनकी आंखों में भी पल रहा है जिन्होंने कुछ महीनों पहले सत्ताधारी दल के लोगों का नींद और चैन चुरा लिया था और उनकी आंखों में भी है जो तब भी सोए रहे। ऐसे स्वप्नदर्शा सत्तापक्ष के लोगों की हर छोटी-बड़ी गलती को लपने और उसे भुनाने का अवसर नहीं छोड़ रहे। एक आयोजन में बजरंगबली का अनादर हुआ तो वे भी जागृत हो गए जिन्हें पार्टी ने केवल सोने का ही जिम्मा सौंप रखा है। गनीमत रही कि हमेशा जागृत रहने वाले और सत्ताधारी दल की कथित ‘हिम्मत’ मिल गई और पिक्चर हिट हो गई।

...और अब रतलामी होली

यह रचना रतलाम शहर के सोशल मीडिया ग्रुपों में काफी वायरल हो रही है। हमने सोचा होली के खास मौके पर रची गई ये पंक्तियां आपको भी पढ़वाई जाए, इसलिए आपकी खिदमत में पेश है...)

‘शिव’ के भक्त ‘प्रहलाद’ ने ऐसा फैलाया रंग।

‘काश्यप’ धर्मसंकट में फंसे, हुई ‘पार्टी में जंग’।

बॉडी बिल्डिंग के फेर में पड़ गई रंग में भंग।

जब बजरंग बली के सामने खुले अंग-प्रत्यंग।

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‘धर्म-अधर्म’ संग मुद्दा बन गया ‘नारी का सम्मान’।

आग में कूदे ‘अति - उत्साहित’ छोड़ के सारे काम।

‘विशाल’ ‘जलज’ को मिल गया रोजनामचे में स्थान।

‘पारस’ को ‘हिम्मत’ ऐसी मिली हुआ देश में नाम।

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मैं ‘मुर्दों के शहर’ की बेचारी सी निर्मल जनता हूं।

पोहे, तर कचौरी खाकर मुझे सब कुछ लगे हसीन।

सुशील, नीरज, सुरेंद्र, नरेंद्र और लिख रहे असीम।

पर ‘गुमान’ से भरे नेताओं को दिखती नहीं जमीन।

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बुरा ना मानो ये रतलामी होली है...