कवि और कविता : 'ले मशाल सिंदूरी नभ से अलख जगाने जो आई...' 

कवि और कविता श्रंखला में युवा कवि एवं लेखक आशीष दशोत्तर बता रहे हैं छायावादी कविता से प्रभावित कवि शिवशंकर जोशी के काव्य सृजन की विशेषताओं के बारे में। आइये, जानते हैं क्या खासियत रहीं उनकी रचनाओं में।

कवि और कविता : 'ले मशाल सिंदूरी नभ से अलख जगाने जो आई...' 
शिवशंकर जोशी

 आशीष दशोत्तर 

जीवन की विषमताओं और विविधताओं से रचनात्मकता मुखर होती है। व्यक्ति इनसे सीख भी लेता है और जीवन को समझने की कोशिश भी करता है। हर व्यक्ति के भीतर एक रचनाकार मौजूद होता है। वह स्वयं की रचनात्मकता से वाबस्ता भी होता है। यह और बात है कि कुछ लोग इसे कागज़ पर उतार पाते हैं और कुछ नहीं। रचनाकार की दृष्टि और उससे प्रस्तुत करने का तरीका ही उसे अन्य लोगों से श्रेष्ठ बनाता है। रचना वही मज़बूत और ताक़तवर होती है जिसमें जीवन शामिल होता है।

रचनाकार का दृष्टिकोण ही उसे सभी की दृष्टि में लाता है। कोई रचना यदि वर्षों बाद भी याद रहती है तो वह उसकी प्रभावोत्पादकता, भाषा वैशिष्ट्य और सामयिकता होती है। एक लंबे समय तक रचनात्मक वातावरण से जुड़े रहे और निरंतर अपनी सृजनात्मकता से साहित्य को समृद्ध करते रहे गीतकार एवं कवि श्री शिवशंकर जोशी भी ऐसे ही रचनाकार रहे। उन्होंने अपनी रचनाओं को समसामयिकता से जोड़कर संपन्न बनाया। रतलाम के रचनात्मक वातावरण ने उन्हें जिस वैचारिक दृष्टिकोण से जोड़ा वही उनकी रचनात्मक संपन्नता का कारण बना ।

श्री जोशी मधुर गीतकार रहे। उन्होंने सस्वर अपनी रचनाओं का पाठ कर उसे और अधिक प्रभावी बनाया। रतलाम में एक समय जब गोष्ठियों का दौर चरम पर था तब वे अपने पूरे हाव-भाव के साथ रचनाओं का पाठ किया करते थे। उसके बाद भी जब-जब रतलाम में उनका आगमन हुआ तब वे यहां की साहित्यिक संगोष्ठियों में उपस्थित होकर अपनी रचनाओं को शिद्दत के साथ प्रस्तुत करते रहे । उनका रचनात्मक जुड़ाव और प्रगतिशील वैचारिकता के प्रति समर्पण उन्हें एक बेहतर रचनाकार साबित करता रहा। 

भरे मांग सिंदूर लिए 

मस्तक पर कुमकुम की थाली।

लिये रुचिर मृदुहास पिये 

मानिक मदिरा की जो प्याली।

कुछ पीने कुछ और पिलाने 

मधुबाला सी मुस्काई 

साथी सांझ चली आई। 

रचनाकार अपनी परिस्थिति और परिवेश से काफी प्रभावित होता है। जोशी जी भी अपनी रचना प्रक्रिया में इससे अछूते नहीं रहे। दरअसल हर रचनाकार यही कोशिश करता है कि वह अपने आसपास से ही ऐसे विषय को रचना में शामिल करे जिनसे मनुष्य का जीवन जुड़ा हुआ है। अमूमन रचनाकार विषय वहीं से उठाता है। ये विषय हमारे आसपास बिखरे होते हैं। कहीं प्रकृति में, कहीं परिवेश में, कहीं परिस्थितियां और कभी किसी के प्रभाव से ऐसे विषय हमारे सामने स्वयं उपस्थित होते हैं। ये हमें लिखने के लिए विवश करते हैं और विचार करने की शक्ति भी देते हैं। ऐसे विषय ही किसी रचना को मज़बूत बनाते हैं। जोशी जी ने भी इन विषयों को न सिर्फ छुआ बल्कि उनके भीतर जाकर उनकी पड़ताल करने की कोशिश भी की । यही कारण है कि उनकी रचनाएं सामान्य होते हुए भी महत्वपूर्ण प्रतीत होती है‌।वे अपनी रचनाओं के माध्यम से हर मनुष्य से बात करते हैं और उसके भीतर जाकर उसके दुःख- दर्द से एकाकार होने की कोशिश करते हैं। 

सर सरिता में रुनझुन करती 

वन उपवन में इठलाती ।

डाली- डाली पर हरषाती 

फल फूलों पर मदमाती।

विकल किसी राधा के 

मनमोहन की सुधि रंग लाई। 

मनुष्य के सामने कई बार अजीब से सवाल आते हैं। वह समाज में व्याप्त विषमताओं को देखता है तो व्यथित हो जाता है । मनुष्य, मनुष्य के बीच मौजूद भेदभाव और उसे कमज़ोर बनाने वाली ताक़तों का बाहुल्य उस रचनाकार को हैरान भी करता है और परेशान भी। जोशी जी भी इसी द्वंद्वात्मक स्थिति को अपनी रचनाओं में स्थान देते रहे। एक मनुष्य वह है जो अपना सर्वस्व न्योछावर करता है, भरपूर श्रम करता है, अपना जीवन समर्पित कर देता है और बदले में उसे वह सब कुछ नहीं मिलता जिसका वह अधिकारी होता है। वहीं दूसरी ओर वह व्यक्ति होता है जो सुख सुविधाओं को भोगता है। वह उन छोटे मनुष्यों का शोषण करता है जो अपनी श्रम शक्ति से विपरीत परिस्थितियों को बदलने का साहस करता है। श्रम करने के बाद थके हारे मजदूरों का लौटना, एक पंछी के दल की भांति कोई रचनाकार ही बता सकता है। यहां जोशी जी ने श्रमिकों को एक पंछी सा बता कर वही ऊंचाई दी है जो जिसका वह अधिकारी है। उसकी निश्चलता, अपने लक्ष्य के प्रति उसका सचेत होना, निरंतर श्रम करते रहना और किसी से कोई भेदभाव न रखना यही एक श्रमिक की पहचान है। ऐसा करते हुए वह किसी पंछी से कम नहीं होता । निरंतर ऊंचाइयों को छूने की उसकी ख़्वाहिश और शिकारियों की मानिंद घात लगाए बैठे शोषक ,उसकी राह की बाधा बनते हैं। जोशी जी की रचनाएं उसी श्रमिक वर्ग का गीत गाती है। 

लौट रहे जल विहंगों के दल 

भ्रमित श्रमिक पागल बादल।

स्वर्ण दान दे अंशुमाली ने 

समेट लिया अपना आंचल।

तब निंदिया की राह सलोने 

सपन जगाने जो आई। 

शिवशंकर जोशी जी ने अपनी रचनाओं में जनपक्षधरता को नज़रअंदाज़ नहीं किया। जीवन के हर बिम्ब को देखने का नज़रिया मानवीय होना चाहिए। वे भी अपने दृष्टिकोण में मानवीय पक्ष को विस्मृत नहीं करते हैं। शिव शंकर जोशी जिस दौर में रचना करते रहे वह दौर जनआंदोलनों का दौर था । उस वक्त रतलाम में जन आंदोलन चरम पर थे। यहां पर बड़े-बड़े रचनाकार अपनी रचना प्रक्रिया के द्वारा न सिर्फ जनता की आवाज़ को बुलंद कर रहे थे बल्कि जनता की शक्ति को भी बता रहे थे। सिर्फ क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक ऐसा जन आंदोलन मुखर हो रहा था जिसके माध्यम से रचनात्मकता को नया आया मिल रहा था। जोशी जी ने भी अपनी रचनाओं में उस जनपक्षधरता को शामिल कर उसे आवाज़ प्रदान की।

जन-जन के मन में चमकाती,

जैसे दीपक की बाती ।

हारे पंथी के मन में फिर 

विजय पताका फहराती। 

ले मशाल सिंदूरी नभ से 

अलख जगाने जो आई।

छायावादी कविता से श्री जोशी प्रभावित रहे। उनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण बहुत बारीकी से नज़र आता है। उनके गीत अपने इस अंचल की भीनी महक प्रदान करते हैं। अपने गांव, चौपाल, पगडंडियां, सुबह की लाली, ढलती सांझ के दृश्य, घर-आंगन और रिश्तों के रंग उनके गीतों के प्रमुख विषय रहे। इसके साथ ही वे सामान्य जन की पीड़ाओं से भी वाबस्ता रहे। नई कविता के दौर से कदमताल करते हुए अपनी रचनाओं को एक अलग आकार प्रदान करते रहे। जोशी जी की रचनात्मकता रतलाम में पुष्पित और पल्लवित हुई। उसे रतलाम से मुंबई जाने के बाद भी निरंतरता मिलती रही। वे निरंतर सृजन करते रहे। अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से रतलाम का नाम रोशन करते रहे और प्रगतिशील कविताओं एवं गीतों के अपने पक्ष को और अधिक उज्जवल करते रहे। उनकी रचनाएं उनके गीत संग्रह में शामिल भी हैं। ये रचनाएं उनके वैविध्य और उनके रचनात्मक जुड़ाव को व्यक्त करती हैं। उनका स्मरण उस दौर की रचनात्मकता स्मरण है। 

आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर, बरबड़ रोड, रतलाम- 457001

मो. नं. - 9827084966