कवि और कविता : फिर न मिलेंगे दिन अलबेले, जीवन की सब साध मिटा लें : मोहनलाल उपाध्याय निर्मोही
कवि और कविता शृंखला में युवा कवि एवं साहित्यकार आशीष दशोत्तर से जानते हैं कवि मोहनलाल उपाध्याय निर्मोही के काव्य सृजन के बारे में।
आशीष दशोत्तर
कविता जीवन का निर्माण करती है। वही जीवन के लिए राह बनाती है। वही मंज़िल तय करती है और वही मंज़िल तक पहुंचने का हौंसला भी देती है। कविता व्यक्तित्व का निर्माण भी करती है। वह व्यक्ति को शब्दों के वापरने का सलीका सिखाती है, शब्दों के महत्व को समझाती हैं और शब्दों के प्रति सम्मान की भावना जागृत करती है। हर व्यक्ति के भीतर एक कवि मौजूद होता है, मगर जब कवि उसके व्यक्तित्व पर सवार होता है तो एक व्यापक रचनात्मक वातावरण का निर्माण होता है। ऐसा वातावरण न सिर्फ उसके वक्त को बल्कि आने वाले समय और कई नस्लों को रचनात्मक रूप से आबाद भी करता है।
अपनी रचनात्मक गतिविधियों एवं लेखनी के ज़रिए बहुआयामी व्यक्तित्व गढ़ने वाले अद्भुत शब्द संपदा के धनी श्री मोहनलाल उपाध्याय 'निर्मोही' ने ऐसे ही सारगर्भित रचनात्मक वातावरण को पोषित किया। उनका जीवन बहुत अल्प रहा मगर उनकी रचनात्मकता का फलक काफी विस्तृत। एक पत्रकार के रूप में, संपादक के रूप में, कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार के रूप में और उसके साथ ही साहित्यिक गतिविधियों को स्थापित करने वाले साहित्य सेवी के रूप में निर्मोही जी को सदैव याद किया जाता है। ख़ासतौर से अपनी मालवी बोली के लिए उन्होंने बहुत प्रयास किए। मालवी को उसका स्थान दिलवाने के लिए अपने स्तर पर महत्वपूर्ण कार्य भी किए।
निर्मोही जी कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, कविता, पत्रकारिता, संपादन जैसी विभिन्न विधाओं में पारंगत थे। महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' के मालवी अंक के संपादकीय में उन्होंने लिखा, 'बोलियों की दृष्टि से मध्यप्रदेश अत्यंत संपन्न है। यहां मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली और छत्तीसगढ़ी जैसी पांच प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं। इन बोलियों के अंतराल में इतिहास, समाजशास्त्र, नृत्य शास्त्र एवं मानव भूगोल विकास के अमूल्य तत्व निहित हैं। विडंबना है कि मालवा की माटी की जितनी सेवा होनी चाहिए थी, उतनी न हो सकी। अभी भी नव परिवेश में मालवी का भाषाई सर्वेक्षण अछूता पड़ा है, जो किसी मालवी ग्रियर्सन की बाट जोह रहा है।'
एक कुशल संपादक के साथ वे संवेदनशील रचनाकार भी थे। निर्मोही जी छायावाद और रहस्यवाद के दौर में अपना सृजन करते रहे और साहित्यिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे। इसका प्रभाव उनकी रचनाओं पर भी देखने को मिलता है। उनकी रचनाएं रहस्यवाद से भी प्रभावित नज़र आती है।
मैं महामिलन की ओर चली
सखि! छोड़ जगत के लघु बंधन
नव अज्ञात क्षितिज की ओर चली
अस्तित्व मिटा तिल -तिल कर के
मिट कर अपने प्रिय लोक चली
मैं महामिलन की ओर चली।
श्री मोहनलाल उपाध्याय ‘निर्मोही’ का जन्म 25 जनवरी 1921 को हुआ तथा 20 जनवरी, 1972 बसंत पंचमी के दिन वे स्वर्गवासी हुए। उन्हें उम्र बहुत कम मिलीं मगर उन्होंने अपनी रचनात्मकता से अपने जीवन को विशाल स्वरूप दिया। अध्ययन एवं साहित्य के प्रति उनकी रुचि इसी से परिलक्षित होती है कि अवसान से 15 दिन पूर्व ही उन्होंने अपना पीएच.डी. का शोध प्रबंध इंदौर विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था।
सन 1943 में ग्राम सुधार नामक पत्रिका के संपादक के रूप में उनकी सृजन यात्रा शुरू हुई। इससे पहले सन 1939 में श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर में वे पहले पुस्तकालयाध्यक्ष बने और एक अंतराल के बाद मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘वीणा’ के वर्ष 1970 से लेकर 1972 में अवसान तक संपादक भी रहे। 1946 में उनका कहानी संग्रह 'कलम के हिमायती' प्रकाशित हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत उनकी दो और कृतियां प्रकाशित हुईं। 1947 में कहानी संग्रह पंद्रह अगस्त तथा 1950 में नाटक रूपमती। इसके बाद 'नीलिमा' तथा 'निर्माल्य' उपन्यास तथा गीतिनाट्य 'मांडवी' उनकी उल्लेखनीय कृतियां रहीं।
वे रतलाम में जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस से जुड़े और 1947 में रतलाम से प्रकाशित ‘दैनिक मालवा’ के संपादक बने। कुछ समय बाद निर्मोही जी पुनः इंदौर में यूनाइटेड प्रेस में व्यवस्थापक हो गए। पीयूषधारा प्रेस में भी कुछ समय तक उन्होंने कार्य किया। इंदौर के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र 'इंदौर समाचार' तथा 'जागरण' के कुछ वर्ष तक वे संपादक भी रहे। निर्मोही जी ने अपने साहित्यप्रेमी साथियों के साथ मालव हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की। यह अध्ययन ,अध्यापन का एक महत्वपूर्ण केंद्र साबित हुआ। 1956 में वे शासकीय सेवा में आ गए।
निर्मोहीजी के सम्पादन में 'वीणा' के ग्राम संस्कृति अंक दो भाग में तथा मालवी अंक दो भाग में निकाले जो अब तक चर्चा एवं विमर्श के विशेषांक बने हुए हैं। मालवी पर ये आधिकारिक जानकारियों वाले संग्रहणीय अंक हैं। वे ग्राम संस्कृति और लोक संस्कृति के प्रबल हिमायती थे वहीं इनको भारत की आत्मा मानते थे। उनके विचारों की स्पष्ट झलक उनके संपादन में 1971 में प्रकाशित वीणा के ग्राम संस्कृति अंक व मालवी अंक (पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध) के संपादकीय में परिलक्षित होती है। एक संपादकीय में उन्होंने कहा 'इस देश की जनता का 90 प्रतिशत ग्राम और जनपदों में बसा है। उनकी संस्कृति ही देश के प्रधान संस्कृति है। हमारे राष्ट्र की समस्त शुभ परंपराओं को लेकर ग्राम संस्कृति का निर्माण हुआ। आज की आपाधापी वाली यंत्रवादी संस्कृति में ग्राम संस्कृति की चर्चा चौंकाने वाली अवश्य है, किंतु यह लोकधर्मी संस्कृति ही भारत की आत्मा है। इसका संबंध वास्तविक जनजीवन से है।'
निर्मोहीजी मालवी गीतों का भण्डार थे और सुकण्ठी गायक भी। उनकी रचनाएं वीणा, माधुरी, विश्वामित्र, नवयुग, स्वतंत्र अर्जुन, आज तथा कर्मवीर जैसी सम्मानित पत्र, पत्रिकाओं में छपी। उनके नाम पर इंदौर में अहिल्यापुरा स्थित उनका पुराना निवास निर्मोही संग्रहालय के रूप में संचालित है। उनकी रचनाओं पर छायावादी प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता रहा।
साधना कब तक करूंगी, प्रिय मिलेंगे या न आली
क्या न धड़कन मौन होगी, क्या रहेगी अधर लाली,
जोगिया पहनूं बनूं क्या ,राख अंग-अंग में रमा लूं,
आज क्षण -क्षण कंप कैसा,क्यूं खड़ी ये रोमावली है,
बाहें क्यूं हो आकुल तरसती,क्यूं अवरूद्ध शब्दावली है।
अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपनी बोली के प्रति निर्मोही जी को काफी लगाव था। यह उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता रहा। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उन्होंने अपनी रचनाओं में स्वतंत्रता और देश प्रेम को प्रमुखता से स्थान प्रदान किया। वे आज़ादी के आंदोलन से प्रभावित भी थे और उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए इस आंदोलन में अपनी सहभागिता की।
झूठे जग के सारे बंधन, मैं दुनिया में उन्मन-उन्मन,
कोई हंसता,कोई है रोता,निज जीवन के क्षण-क्षण खोता,
पलकों के कोमल अंचल में,अपना कंपन आज छुपा लें,
फिर न मिलेंगे दिन अलबेले, जीवन की सब साध मिटा लें।
साहित्यिक मित्रों एवं वरिष्ठों के बीच बैठकर उनसे साहित्यिक चर्चा करना और उन चर्चाओं से कुछ प्राप्त करने की ललक रचनाकार की रचनाओं को परिमार्जित भी करती है और संस्कारित भी। एक समय साहित्यिक संगोष्ठियों के ज़रिए रचनाकारों को अपनी रचनाओं का महत्व भी पता चलता था, रचनाओं को वरिष्ठ साहित्यकारों की कसौटी पर खरे उतरने का अवसर भी मिलता और बहुत कुछ सीख भी मिलती थी। निर्मोही जी भी ऐसी संगोष्ठियों के ज़रिए अपने रचनात्मक संसार को समृद्ध करते रहे। उस दौर में हालावादी रचनाओं के प्रभाव से उनकी रचनाएं भी प्रभावित रहीं।
मैं इतनी मदिरा पी जाऊं
खुद अपने ही में खो जाऊं
तुम खो जाओ ,जग खो जाए
पीड़ा के सपने सो जाएं
रहो मौन तुम गीत मैं जब गाऊं
गालों का अरुण रंग उषा छू ले
मन मयूर नाच, झूला झूले
मैं खुद ही गाफ़िल हो सो जाऊं।
उन्होंने साहित्यकार पंडित रामनारायण शास्त्री जैसे विद्वानों के साथ 'मालव साहित्यकार संसद' नाम की एक संस्था भी गठित की थी और इसके माध्यम से साहित्यिक एवं वैचारिक गोष्ठी आयोजित करते थे। डॉ. श्याम सुंदर व्यास, जानकीप्रसाद पुरोहित, नारायण देव आर्य जैसे साहित्यकार साथियों के साथ उन्होंने अपनी रचनात्मकता को ऊंचाइयां प्रदान की।
बीते क्षण- क्षण यूं कि सदियां बीत चलीं
विकल ह्रदय की प्यास प्रियदर्शन के लिए आस
आकुल नयनों से सतत दरस पथ बुहारती
खड़ी द्वार बिरहिन अधीरा, अविरल निहारती
उतरे तारक दल श्यामल कुंतल राशि बीच
म्लान अंगों पर तरंगित सुकुमार दुकूल
कमल मुख मानो, मुरझा उठा हो समूल।
श्री मोहनलाल उपाध्याय 'निर्मोही' ने श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर की साहित्यिक मासिक पत्रिका वीणा का संपादन करते हुए वर्ष 1971 में मालवी पर दो भागों में विशेषांक प्रकाशित किया। इसके साथ ही ग्राम संस्कृति अंक भी दो भाग में प्रकाशित कर उन्होंने मालवी को स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। वीणा के मालवी अंक उत्तरार्द्ध के संपादकीय में निर्मोही जी ने लिखा 'वीणा के मालवी अंक का अप्रत्याशित रूपेण भारतवर्ष के समस्त वर्ग के विद्वानों द्वारा स्वागत हुआ है ।अपने 44 वर्षीय विगत काल में उसको इतनी अधिक सराहना और पाठक वृंद से सहृदय सद्भावना कभी प्राप्त नहीं हुई। इसको विद्वत समाज का औदार्य ही माना जा सकता है। कला और संस्कृति के विविध पहलुओं से मालव भूमि अत्यंत संपन्न है।'
रतलाम में 8 व 9 जून 1971 को मालवी मेले का भव्य आयोजन किया गया था। इस आयोजन में रामधारी सिंह 'दिनकर', डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, आचार्य विनय मोहन, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, डॉ. शिव सहाय पाठक, डॉ. चिंतामणि उपाध्याय, बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतशरण उपाध्याय, डॉ. श्याम सुंदर व्यास, चंद्रकांत देवताले सहित कई विद्वानों ने उपस्थित होकर मालवी को उसका गौरव दिलाने का संकल्प लिया।
निर्मोही जी के सुपुत्र और स्थापित मधुर गीतकार डॉ. प्रकाश उपाध्याय बताते हैं कि मालवी मेले के आयोजन की रूपरेखा उनके निवास पर ही बनाई गई थी। पिताजी यानी निर्मोही जी और तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री बालकवि बैरागी उनके घर पर बैठकर ही इस मेले के आयोजन से संबंधित आयोजन को अंतिम रूप देते रहे। यह मेला इतना महत्वपूर्ण हुआ कि पूरे मालवा अंचल में इसकी गूंज फैली। इसके बाद से मालवा के विभिन्न क्षेत्रों में मालवी कवि सम्मेलन एवं मालवी प्रसंग आयोजित किए जाने लगे।
कोई भी रचनाकार अपनी ज़मीन को नहीं भूलता। जब व्यक्ति के मन में अपनी जन्मभूमि के प्रति स्नेह होता है तो वह उसकी रचना में भी अभिव्यक्त होता है। निर्मोही जी अपनी जन्मभूमि को कभी नहीं भूले और गृहनगर रामपुरा की स्मृति में भी उन्होंने अपनी रचना लिखी।
उत्तुंग भवनों से सुशोभित ग्राम
अतुल्य वैभव की सुगाथा मूर्तिमान
जगमग अतीत का सुंदर गान
मेरे प्रिय गृह नगर अभिराम
ऐ, रामपुरा तुमको शत-शत प्रणाम ।
मस्तकासीन विंध्याचल पर्वत दर्पवान
सीमांत अभिरक्षण रत चंबल प्रवाह मान
कैसे हो विस्मृत तुम्हारा वैभव विलास
वो गर्व भरा अमर इतिहास।
देश ,काल और परिस्थितियों का रचनात्मकता पर प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है। समय के अनुसार रचना की विषयवस्तु परिवर्तित होती रहती है, रचनाएं परिमार्जित होती रहती है और रचनात्मक वातावरण भी प्रभावित होता रहता है। निर्मोही जी ने अपने कार्यों से जिस वातावरण का निर्माण किया था वह निरंतर पुष्पित और पल्लवित होता रहा। उनकी रचनाएं, उनके कार्य और उनके प्रयास आज भी हमें प्रेरित करते हैं।
आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
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