कवि और कविता : 'पानी के पेड़ पर जब बसेरा करेंगे आग के परिंदे...' -चंद्रकांत देवताले
कवि और कविता शृंखला में युवा कवि एवं लेखक करा रहे चंद्रकांत देवताले के साहित्य सृजन और काव्य सृजन का बोध। आइये, जानते हैं- क्या खासियत है इस शख्सियत के काव्य में...।
आशीष दशोत्तर
कविता एक बेहतर इंसान को रचती है। कोई व्यक्ति बेहतर इंसान हुए बिना बेहतर कवि नहीं हो सकता। बेहतर होना आदर्श होने से कहीं अलग है। कविता इंसान को बेहतर बनाती है, उसे गढ़ती है और संवेदनशील बनाती है। यही कविता जब उस बेहतर इंसान से एकाकार हो जाती है तो वह असीम ऊर्जा से परिपूर्ण होती है और सीधे दिल पर असर करती है।
समकालीन कविता को अपनी रचनात्मकता से एक नई शैली और नया तेवर देने वाले कवि श्री चंद्रकांत देवताले की कविताएं एक ऐसा संसार रचती है जहां पर मनुष्यता के सभी पक्ष सामने उभरकर सामने आते हैं। देवताले जी अपनी कविताओं के ज़रिए आसपास बिखरी चीज़ों को उठाकर उन्हें इस खूबसूरती से जोड़ते हैं कि वह एक बेहतरीन कविता की शक्ल लेकर हमारे जीवन से वाबस्ता हो जाती हैं।
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं
उनकी नींद हराम हो जाए।
हो सके तो बनो पहरुए,
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे,
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान।
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर
ख़ून की जाँच करो अपने कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।
देवताले जी का जन्म 7 नवंबर 1936 को बेतूल जिले के जोलखेड़ा गांव में हुआ और निधन 14 अगस्त 2017 को हुआ। शिक्षा इंदौर में और 1952 में पहली कविता 'सुबह' बड़वाह में नर्मदा के किनारे लिखी। रतलाम से देवताले जी का विशेष जुड़ाव रहा। उनकी काव्य यात्रा का महत्वपूर्ण समय रतलाम का ही रहा। 1970 से 1983 की अवधि में वे रतलाम में रहे। उनके काव्य संग्रह जो देशभर में चर्चित हुए वे रतलाम में रहते हुए ही प्रकाशित हुए। 'हड्डियों में छिपा ज्वर' (1973), 'दीवारों पर ख़ून से' (1973), 'लकड़बग्घा हंस रहा है' (1980), 'रोशनी के मैदान की तरफ़' (1982) 'भूखंड तप रहा है' (1982) ये सब काव्य संग्रह उनकी साहित्य यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव की तरह रहे।
बच्चों और युवाओं के भविष्य के लिए
बहस में शामिल
पिपलोदा के श्यामलाल गुरूजी सोच रहे हैं
इतने बड़े नेक काम के लिए याद किया गया उन जैसा,
वे अहोभाग्य समझकर सपनों की टूटी हड्डियाँ
अपने भीतर जोड़ रहे हैं,
पूरा राष्ट्र बहस में शामिल है
इसलिये इसे राष्ट्रीय बहस कहा गया,
और श्यामलाल गुरू जी ने भी दो शब्द कहे
पिपलोदा गाँव की कच्ची पाठशाला में
और सोच खुश हुए - उनके शब्द भी शामिल हुए
मुद्दों के राष्ट्रीय दस्तावेज़ में
श्यामलाल गुरू जी टाट पट्टियों और डस्टर के बारे में परेशान थे पूरी बहस के दौरान
और महीनों तक देखते रहे थे आसमान में
नयी टाट पट्टियों की उड़ान।
इसके बाद इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ (2011) उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। ‘मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक’ उनकी आलोचना पुस्तक के अतिरिक्त उन्होंने ‘दूसरे-दूसरे आकाश’ और ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ का संपादन किया है।इन संग्रहों की कविताओं में रतलाम पूरी तरह मौजूद है। यहां के आदिवासी अंचल की व्यथा, सड़क पर बालम ककड़ी बेचती महिला का चित्रण, आम आदमी के जीवन संघर्ष और कई सारे दृश्य उनकी कविता में मिलते हैं जो रतलाम में उनके बिताए दिनों की मिसाल है।
कोई लय नहीं थिरकती उनके होंठों पर
नहीं चमकती आंखों में ज़रा-सी भी कोई चीज़,
गठरी-सी बनी बैठी हैं सटकर
लड़कियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की
फैलाकर चीथड़े पर
अपने-अपने आगे सैलाना वाली मशहूर
बालम ककड़ियों की ढीग
सैलाना की बालम ककड़ियाँ केसरिया और खट्टी-मीठी नरम।
वे लड़कियाँ सात
बड़ी फ़जर से आकर बैठ गई हैं पत्थर के घोड़े के पास ,बैठी होंगी डाट की पुलिया के पीछे,
चौमुखी पुल के पास होंगी अभी भी
सड़क नापती बाजना वाली
चाँदी के कड़े ज़रूर कीचड़ में सने
पाँवों में पुश्तैनी चमक वाले,
होंगी और भी दूर-दूर समुद्र के किनारे पहाड़ों पर
बस्तर के शाल-वनों की छाया में
माँडू-धार की सड़क पर
झाबुआ की झोपड़ियों से निकलती हुई
पीले फूल के ख़यालों के साथ
होंगी अंधेरे के कई-कई मोड़ पर इस वक्त
मेरे देश की
कितनी ही आदिवासी बेटियाँ
शहर-क़स्बों के घरों में पसरी है अभी तक।
अन्तिम पहर के बाद की नींद
बस शुरू होने को है थोड़ी ही देर में
कप-बसी की आवाज़ों के साथ दिन
लोटा भर चाय पीकर आवेंगे धोती खोंसते
अंगोछा फटकारते खरीदने ककड़ी
उम्रदराज़ सेठ-साहूकार बनिया-बक्काल
आंखों से तोलते-भाँपते ककड़ियाँ
बंडी की जेबों से खनकाते रेजगी,
ककड़ियों को नहीं पर लड़कियों को मुग्ध कर देगी
रेजगी की ख़नक आवाज़
कवि लोग अख़बार ही पढ़ते लेटे होंगे
अभी भी कुढ़ते ख़बरों पर
दुनिया पर हँसते चिलम भर रहे होंगे सन्त
शुरू हो गया होगा मस्तिष्क में हाकिमों के
दिन भर की बैठकों-मुलाक़ातों
और शाम के क्लब-डिनर का हिसाब
सनसनीख़ेज ख़बरों की दाढ़ी बनाने का कमाल
सोच विहँस रहे होंगे मुग्ध पत्रकार
धोती पकड़ फहराती कार पर चढ़ने से पहले
किधर देखते होंगे मंत्री
सर्किट हाउस के बाद दो बत्ती फिर घोड़ा
पर नहीं मुसकाकर पढ़ने लगता है मंत्री काग़ज़
काग़ज़ के बीचोंबीच गढ़ने लगता है अपना कोई फ़ोटू चिंन्तातुर
नहीं दिखती उसे कभी नहीं दिखतीं
बिजली के तार पर बैठी हुई चिड़ियाएँ सात।
मैं सवारी के इन्तज़ार में खड़ा हूं और
ये ग्राहक के इन्तज़ार में बैठी हैं।
सोचता हूँ
बैठी रह सकेंगी क्या ये अंतिम ककड़ी बिकने तक कभी ये भेड़ो-सी खदेड़ी जाएंगी
थोड़ा-सा दिन चलने के बाद फोकट में ले जाएगा ककड़ी.संतरी
एक से एक नहीं सातों से एक-एक कुल सात
फिर पहुँचा देगा कहीं-कहीं कुल पाँच
बीवी खाएगी थानेदार की
हँसते हुए छोटे थानेदार ख़ुद काटेंगे
फोकट की ककड़ी,कितना बड़ा रौब गाँठेंगी
घर-भर में, आस-पड़ोस तक महकेगा
सैलाना की ककड़ी का स्वाद
याद नहीं आएंगी किसी को लड़कियाँ सात,
कित्ते अंधेरे उठी होंगी
चली होंगे कित्ते कोस
ये ही ककड़ियाँ पहुँचती होंगी संभाग से भी आगे
रजधानी तक भूपाल
पीठवाले हिस्से के चमकते काँच से
कभी-कभी देख सकते हैं इन ककड़ियों का भाग्य
जो कारों की मुसाफ़िर बन पहुँच जाती हैं कहाँ-कहाँ
राजभवन में भी पहुँची होंगी कभी न कभी
जगा होगा इनका भाग।
सातों लड़कियाँ ये
सात सिर्फ़ यहाँ अभी इत्ती सुबह
दोपहर तक भिंडी, तोरू के ढीग के साथ हो जाएगी इनकी
लम्बी क़तार
कहीं गोल झुंड
ये सपने की तरह देखती रहेंगी
सब कुछ बीच-बीच में
ओढ़नी को कसती हँसती आपस में
गिनती रहेंगी खुदरा
सोचतीं मिट्टी का तेल गुड़
इनकी ज़ुबान पर नहीं आएगा कभी
शक्कर का नाम
बीस पैसे में पूरी ढीग भिंडी की ,दस पैसे में तोरू की
हज़ारपती-लखपती करेंगे इनसे मोल-तोल
ककड़ी तीस से पचास पैसे के बीच ऐंठकर
ख़ुश-ख़ुश जाएंगे घर जैसे जीता जहान
साँझ के झुटपुटे के पहले लौट चलेंगे इनके पाँव
उसी रास्ते
इतनी स्वतंत्रता में यहाँ शेष नहीं रहेगा
दुख की परछाई का झीना निशान
गंध डोचरा-ककड़ी की
देह के साथ
लय किसी गीत की के टुकड़े की होंठों पर
पहुँच मकई के आटे को गूँधेंगे इनके हाथ
आग के हिस्से जलेंगे
यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ दूरी पर
अंधेरा फटेगा उतनी आग भर
फिर सन्नाटा गूँजेगा थोड़ी देर बाद
फिर जंगलों के झोपड़ी-भर अंधेरे में
धरती का इतना जीवन सो जाएगा गठरी बनकर
बाहर रोते रहेंगे सियार
मैं भी लौट आऊँगा देर रात तक।
सोते वक्त भी
क्या काँटों की तरह मुझमें चुभती रहेंगी
अभी इत्ती सुबह की
ये लड़कियाँ सात।
रतलाम में रहते हुए देवताले जी ने ब्रेख्त की कहानी का नाट्य रूपांतरण 'सुकरात का घाव' (1979) के रूप में किया, जिसका रतलाम में सफल मंचन हुआ। यह नाटक वाणी से पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुआ और उसके मुख्य पृष्ठ पर रतलाम में मंचित नाटक का ही चित्र है जिसमें रतलाम के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास सुकरात की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं। रतलाम में रहते हुए देवताले जी ने 'आवेग' जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका से सम्बद्ध होकर आवेग के संपादक श्री प्रसन्न ओझा के साथ कई महत्वपूर्ण अंक निकाले, जो देशभर में चर्चित रहे। आवेग पत्रिका ने देवताले जी के पचासवें वसंत पर संपूर्ण विशेषांक प्रकाशित किया जिसमें उनके साथी रचनाकारों के साथ ही समकालीन कविता के वैचारिक आंदोलन पर भी विमर्श था।
अप्रैल 2000 में देवताले जी से लिया गया लंबा साक्षात्कार उनकी रचनाधर्मिता से परिचित होने का मेरा महत्वपूर्ण अवसर रहा। उनकी रग-रग में बसे रतलाम और रतलाम में ही उनसे उनकी रचनाधर्मिता पर हुई बातचीत में कई सारे पहलू उजागर हुए।
शाम को सड़क पर
वह बच्चा बचता हुआ कीचड़ से
टेम्पो, कार-ताँगे से
उसकी आँखों में चमकती हुई भूख है और
वह रोटी के बारे में शायद सोचता हुआ...
कि चौराहे को पार करते वह अचकचा कर
रह गया बीचों-बीच सड़क पर खड़ा का खड़ा,
ट्रैफिक पुलिस की सीटी बजी
रुकी कारें-टेम्पो-स्कूटर
एक तो एकदम नज़दीक था उसके
वह यह सब देख बेहोश-सा
गिर पड़ा।
मैं दौड़ा-पर पहुँच नहीं पाया
कि उसके पहले उठाया उसे
सन्तरी ने कान उमेठ
होश-जैसे में आ,
वह पानी-पानी,कहने लगा बरसात में
फिर बोला बस्ता मेरा...
तभी धक्का दे उसे फुटपाथ के हवाले कर
जा खड़ा हो गया सन्तरी अपनी छतरी के नीचे
सड़क जाम थी क्षण भर
अब बहने लगी पानी की तरह
बच्चा बिना पानी के जाने लगा घर को
बस्ते का कीचड पोंछ।
मैंने पूछा, आपकी रचनाओं में गहन करुणा और वृहत्तर जीवन की छवियां नज़र आती हैं। आप आदिवासियों के इतने निकट पहुंच जाते हैं, यह कैसे संभव होता है?
वे सहजता से कहने लगे, मैं स्वयं को एक आदिवासी मानता हूं, बल्कि मेरा तो मानना है कि कवि बुनियादी तौर पर खुद आदिवासी होता है । मैं तो गोंडवाना में आदिवासियों के बीच बचपन में रहा हूं। रतलाम- बाजना आदि क्षेत्र मेरी कर्मभूमि रही है । जैसा जीवन हम जीते हैं वैसा ही जीवन के प्रति हमारा आकर्षण हो जाता है। बचपन में हमारा वातावरण यह तय कर देता है कि हमें किस तरफ़ जाना है । हमारा वहीं से प्रारंभ हो जाता है जो ताउम्र चलता रहता है। मैं बचपन से ही निर्धन ग़रीब, आदिवासी वर्ग की पीड़ा को देखता रहा, समझता रहा। आभिजात्य के छद्म ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया, यह मेरा सौभाग्य रहा। इसके बाद जब मुक्तिबोध को पढ़ने का अवसर मिला तो जाने - अनजाने में उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनकी कविताओं की बहुत बड़ी भूमिका रही है मेरा परिष्कार करने में। दरअसल मैं समझता हूं कि कवि एक जासूस भी होता है। इस जगह उसकी जासूसी निगाहें काम करती हैं, मगर किसी के नुकसान के लिए नहीं। एक आदिवासी की जासूसी कितनी निष्कपट होती है यह सोचने की बात है। मैं यह नहीं मानता कि कवि का बनना होता है। परिस्थितियां उसे कवि बनाती है। मेरी परिस्थितियों ने मुझे कवि बनाया इसलिए हर कविता में जीवन नज़र आता है। कोई कविता जीवन से कटी हुई नहीं रह सकती है।
अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूंगा
तहकीकात के लिए
यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
जिसे कहता रहूँगा बाहर शब्दों में
जो अपर्याप्त साबित होंगे हमेशा
यदि मुझे किसी औरत का कत्ल करने की
सज़ा दी जाएगी तो तुम ही होगी यह सज़ा देने वाली
और मैं खुद की गरदन काट कर रख दूँगा तुम्हारे सामने
और यह भी मुमकिन है
कि मुझे खन्दक या खाई में कूदने को कहा जाए
मरने के लिए
तब तुम ही होंगी जिसमें कूद कर
निकल जाऊँगा सुरक्षित दूसरी दुनिया में
और तुम वहाँ भी होंगी विहँसते हुए
मुझे क्षमा करने के लिए
मेरी फिर जिज्ञासा रही, कि आपकी कविताओं में इतना अर्थ गांभीर्य कैसे पैदा हो जाता है?
वे कहने लगे, भाषा और काव्य मेरे लिए एकांत नहीं है। मैं भाषा को भी सामाजिक अभ्यास मानता हूं। जिस वातावरण में हम रहते हैं, जो हमारे आसपास है, वही हमें भाषा देता है। कोई शब्द या वाक्य यदि कहीं से फूटता है तो वही कविता लिखने का सबब बन जाता है। मैं कभी भी भाषा के लिए पृथक से सावधान या सजग नहीं रहा। मुक्तिबोध की भाषा भी हमारे जीवन का हिस्सा लगती है । कोई भी भाषा जीवन से कटी हुई नहीं होती। इसी भाषा को लेकर कवि अपना काम बखूबी करता है और यही उसकी नियामत है।
कवि की सामाजिक भूमिका जब मैंने उनसे जानना चाही तो वे कहने लगे, कवि की आत्मा एक सामाजिक आत्मा होती है। उसे समाज कवि बनाता है। स्वयं कवि होने की बात पाखंड है। कवि का काम उपदेश देना नहीं है। वह जो देखता है ,उसका चित्रण करता है। सिर्फ़ कविता ही कुछ नहीं कर सकती कर सकती है जब तक कि समाज उसके साथ ना चले समाज जब कविता के साथ होता है तो कविता आज की तरह कई तीखे और प्रासंगिक प्रश्न खड़े करती है।
एक-दूसरे के बिना न रह पाने
और ताज़िन्दगी न भूलने का खेल
खेलते रहे हम आज तक
हालाँकि कर सकते थे नाटक भी
जो हमसे नहीं हुआ।
किंतु समय की उसी नोक पर
कैसे सम्भव हमेशा साथ रहना दो का
चाहे वे कितने ही एक क्यों न हों
तो बेहतर होगा हम घर बना लें
जगह के परे भूलते हुए एक-दूसरे को
भूल जाएँ ख़ुद ही को
ग़रज़ फ़क़त यह कि बहुत जी लिए
इसकी-उसकी, अपनी-तुपनी करते परवाह
अब अपनी ही इज़ाज़त के बाद
बेमालूम तरीके से अदृश्य होकर रहें हम
कोहरे के बेनाम-बेपता घर में।
रतलाम का उनके जीवन में अहम स्थान रहा। जब उनसे रतलाम की बात की गई तो वे अपनी पुरानी यादों में खो गए। कहने लगे, मैं रतलाम में 14 वर्ष रहा। यहां पर रहते हुए मेरी अधिकांश पुस्तकें प्रकाशित हुईं। यहीं से कविता लिखना प्रारंभ किया। यहां आकर पुरानी यादों में खोया महसूस करता हूं। मैं सोचता हूं कि हर जगह आदमी को बहुत कुछ देती है। आज कवि हूं तो यहां की ज़मीन ने मुझे बहुत कुछ दिया है । यहां के अभावों ने,आदिवासियों ने , यहां के आत्मीय वातावरण ने मुझे बहुत कुछ दिया है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सकता हूं।
देवताले जी नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मुझे उस वक्त मिला जब 3 मार्च 2002 को नई दुनिया के रविवारीय परिशिष्ट में मेरी कविता 'तीर्थ' छपी तो देवताले सर ने स्वयं फोन पर मुझे बधाई दी और उस कविता का विस्तार से विश्लेषण भी किया। देवताले सर के उस स्नेह की स्मृति आज तक मेरे भीतर मौजूद है।
एक कवि अपने साथ कुछ नहीं ले जाता मगर वह जो कुछ देकर जाता है वह आने वाले संसार को एक खूबसूरत आकार देने के लिए काफी होता है ।देवताले जी ने अपनी कविता में कहा-
पानी के पेड़ पर जब
बसेरा करेंगे आग के परिंदे
उनकी चहचहाहट के अनंत में
थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा।
मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का
उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
परिंदों की प्यास के आसमान में
जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
वहां छायाविहीन एक सफेद काया
मेरा पता पूछते मिलेगी।
देवताले जी की कविताएं यकीनन आज भी उनका आभास करवाती है और हिंदी काव्य साहित्य की धरोहर है।
आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड,
रतलाम - 457001
मो. नं. - 9827084966