कवि और कविता : तुम तट पर बैठे गीत प्रणय के गाते, मैं तूफानों से प्यार किया करता हूं... स्व. भंवरलाल भाटी

कवि और कविता शृंखला में इस बार युवा कवि एवं लेखक आशीष दशोत्तर बता रहे हैं शिक्षाविद् स्व. भंवरलाल भाटी के काव्य सृजन बारे में।

कवि और कविता : तुम तट पर बैठे गीत प्रणय के गाते, मैं तूफानों से प्यार किया करता हूं... स्व. भंवरलाल भाटी
स्व. भंवरलाल भाटी (शिक्षाविद्)

- आशीष दशोत्तर

रचनाकार का कोई परिचय नहीं होता। उसकी रचना स्वयं उसका परिचय देती है। किसी रचनाकार के भीतर प्रवेश करने के लिए उसकी रचनाएं ही माध्यम बनती हैं। उसकी पहचान रचना से ही होती है। एक रचना को आकार देने में रचनाकार अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है और जब वही रचना उसकी पहचान बनती है तो महसूस होता है कि रचना स्वयं रचनाकार के व्यक्तित्व से परिचित कराती है।

अपने गीतों के माध्यम से एक ऐसी ही रचनात्मकता का वातावरण निर्मित करने वाले रचनाकार श्री भंवरलाल भाटी जी भी अपनी रचनाओं के माध्यम से ही जाने जाते रहे। उनके जीवन के कई आयाम रहे। वे कई पक्षों को अपने साथ लेकर चलते रहे। 

मेरे गीत की लयताल में होता मुखर उपवन

कोकिला और मोर नाचने लगते

मुझको घेर चारों ओर।

मै नहीं एकाकी मैं एक -अनेक में समाया हूं

अनेक मुझमें समाये हैं। 

उनकी वैचारिकता अपनी जगह रही, रचनात्मकता अपनी जगह रही, शैक्षिक वातावरण अपनी जगह रहा और सामंजस्य की छवि अपनी जगह रही।  इन सब के बावजूद एक रचनाकार के रूप में जब भाटी जी का स्मरण किया जाता है तो उनकी रचनाओं में अद्भुत श्रंगार और एक अनुभवजन्य गहराई का आभास होता है। वे अपने गीतों में कई ऐसे प्रसंग उपस्थित किया करते थे जो उन्हें एक स्थापित साहित्यकार सिद्ध करता रहा।

तुम तट पर बैठे गीत प्रणय के गाते 

मैं तूफानों से प्यार किया करता हूं।

तुमको उजियाले ने हरदम भरमाया 

मुझको तो अंधियारा पथ पर ले आया 

तुम जगकर दिन में देखा करते सपने 

मैं स्वप्नों को साकार किया करता हूं।

जब प्यास तुम्हारी बढ़ती जलता जीवन 

मैं रच देता उस युग मैं सागर मंथन 

तुम मर- मर जाते अमृत पी-पी कर भी 

मैं पी लेता हूं गरल, जिया करता हूं।

तुम शून्य गगन में रहे खोजते जिसको 

मैं स्वयं वही हूं, भला खोजता किसको

तुम मंदिर, मस्ज़िद भटके करने पूजन 

मैं खुद ही का अभिषेक किया करता हूं।

रचनाकार मोहब्बत का पैरोकार होता है। नफ़रत के लिए उसके यहां कोई जगह नहीं होती। भंवरलाल भाटी जी इसी मोहब्बत को अपने तरीके से रचनाओं में प्रस्तुत करते रहे। उनके यहां मोहब्बत का अर्थ बेहतरी के लिए खत्म होना भी है, नए सृजन करना भी है, एक दीपक की तरह जलना भी है और अपने प्रियतम की यादों के सहारे जीवन व्यतीत करना भी। यह दृष्टि वैविध्य रचनाकार को व्यापक फलक़ प्रदान करती है। अंधकार का वरण करने वाला कभी सृजनशील नहीं हो सकता। सृजन के लिए उसे सामूहिक हित और हर व्यक्ति की पीड़ा को भी ध्यान में रखना पड़ता है। यही दर्द उसकी रचनाओं में व्यक्त होता है। जब रचनाकार इस दर्द से परिचित होता है, तभी वह अपने मनोभावों को रचना की शक्ल दे पाता है। भाटी जी के पास गहन अनुभव और विविध दृश्य मौजूद थे। वे उन्हें अपनी रचनाओं में ढालते रहे और अपने रचनात्मक फ़लक का विस्तार भी करते रहे।

दीपशिखा रातभर अश्रु बहाती रही,

कोई द्वंद्व है,कि कोई वेदना सता रही।

आर -पार तिमिर के देख रही नयन फार

संकेत कर रही हाथ उठा बार बार

जनम -जनम का जो मीत उसको बुलाती रही।

अपनी ही आग में,अपने ही प्रियतम को,

फूंकना पडेगा मुझे अपने ही प्यार को

यही सोच सोचकर,तिलमिलाती रही।

भाटी जी की रचनाएं छायावादी काव्य से काफी प्रभावित रहीं। शृंगार और प्रकृति वर्णन उनके यहां बार-बार दिखाई देता है। एक शिक्षाविद रहते हुए उन्होंने जीवन भर विद्यार्थियों को प्रकृति और मनुष्यता की इन्हीं बारीकियों से अवगत भी कराया। उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थी आज उच्च पदों पर हैं मगर उन्होंने उनके भीतर जो संस्कार डाले थे वे उनका ज़िक्र करना कभी नहीं भूलते। रचनात्मक अभिव्यक्ति में भाटी जी शृंगार, प्रकृति चित्रण और आध्यात्मिक पुट के साथ गंभीर बात भी कहते हैं। उनके यहां चांद- सूरज, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, भाई-बहन या ऐसे ही कई रिश्ते आते हैं मगर सीधे-सीधे नहीं। वे इन संबंधों को इनके नाम से इतर अलग स्वरूप में लाकर अपनी बात बखूबी कह जाते हैं।

मंद-मंद फुहार,सुहावनी श्रावणी बौछार,

बरखा की फुहार।

लो उतर आई गगन से,सुरमई बौछार,

मेघ का देने जगत को,यह सजल उपहार।

व्योम धरती और बादल,हुए एकाकार

हो गए ओझल जगत के चल रहे व्यापार।

गंध सौंधी मनचली,गई फैल चारों ओर,

नृत्य छमछम और रिमझिम,गीत की झकझोर।

रचनाकार के भीतर एक द्वंद्व भी चलता रहता है और यह द्वंद्व ही उसको किसी एक पक्ष में खड़े रहना के लिए विवश करता है। यह रचनाकार की अपनी विशेषता भी होती है और उसकी पसंद भी। भाटी जी वैचारिक रूप से आरएसएस के क़रीब थे। एक प्रचारक के रूप में और सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में वे जीवन भर उससे जुड़े रहे मगर उनकी रचनात्मकता में यह द्वंद्व कभी उभर कर सामने नहीं आया। रचनात्मक अभिव्यक्ति में उनका आग्रह सदैव सृजन की तरफ ही रहा। यह उनकी ईमानदार अभिव्यक्ति रही और उन्होंने इस द्वंद्व से पार पाते हुए वैचारिक धरातल पर रहते हुए ऐसा काव्य संसार निर्मित किया जो प्रभावित भी करता है और आश्चर्यचकित भी।

चलो प्रिये उस पार चलें, चलो क्षितिज के पार चलें,

तुम और मैं, मै और तुम, हम तुम दोनों, दोनों हम।

धरा पवन धन नील गगन, चांद सूरज और गिरी कानन,

सागर अंगडाई लेता हो,जगती का उजला आंगन,

वन्य जीव और जड़ चेतन।

मै होऊं और तुम हो, पास हमारे कोई न हो,

नीरवता हो मलियानिल हो, प्रेम पिपासित हम दोनों,

तार बीन के झंकृत कर दूं,तुम बन जाओ स्वर सरगम।

शर चांदनी छिटकी हो, कल-कल सरिता बहती हो,

नाच रहा हो बेसुध उपवन, कोकिल कुहू-कुहू करती हो,

चंदा आकर झूला बांधे, झूला झूले दोनों हम।

व्यक्त करें युग-युग की स्मृतियां, नयनों की भाषा में हम,

द्वंद्व मिटे और हो अभेद, फिर एक रुप हो जाएं हम,

अद्वितीय संसार हो अपना, जीवन अपना हो अनुपम।

भाटी जी की विषय पर पकड़ मज़बूत थी। वे किसी भी विषय को लेकर चलते थे और उसे पूर्णता तक पहुंचाते थे। उन्होंने एकल अभिनय के साथ किए जाने वाले टेब्लो का भी सृजन किया। उनकी यही मंज़रकशी उनकी रचनाओं को पाठकों के क़रीब ले जाती रही। प्रभावी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए यह आवश्यक होता है कि रचनाकार अपनी शैली के जरिए शब्दों में एक ऐसा अर्थ उत्पन्न करे जो सीधा पाठक के समक्ष एक दृश्य का निर्माण कर दे। भाटी जी की रचनाओं से गुज़रते हुए इसे समझा भी जा सकता है और महसूस भी किया जा सकता। 

कालातीत अदृश्य हाथों ने, सार दिया तिलक लाल,

आलोकित हुआ भाल, या कि अंकुर फूट पडा,

मृत्यु पर जीवन की विजय का,

या कि फिर प्राची के कपोल पर,

मल दी हो रोली किसी मनचले ने

या फिर फागुन की उड़ती गुलाल।

प्रकृति का मदिर मंद हास, या कि यौवन के आगमन की,

सुनकर पदचाप कोई मुग्धा लजाई हो।

कि सुषमा हुई साकार या सविता के स्वागत हित

पूजा का सजा थाल।

या कि त्याग अनुरागमयी ज्ञान भक्ति कर्म की

अरुण पताका फहराई अदृश्य ने। 

कवि अंधेरे का प्रतिकार करता है और उजाले का वरण करता है। भाटी जी के यहां उजाला एक अलग स्वरूप में उतरता है। उनकी रचनाएं बिम्बों और उपमाओं के ज़रिए आगे बढ़ती है। प्रकृति के साथ आबद्ध होकर गति प्राप्त करती है। उनकी अपनी शैली इस अंधियारे का प्रतिकार अलग तरीके से करते हुए कहती है कि अंधकार को सहने के बाद ही उजाले का वरण किया जा सकता है। रात के कठिन सफर से गुज़रते हैं तब आकाश में ऊषा नज़र आती है। 

हो माथे पर बिंदिया सौभाग्य की

या कि सिन्दूर भरी मांग सुहागिन की।

किसी देवालय का शिखर हो

या सौभाग्य सूर्य मनुज का

या सृजन की प्रथम किरण

या प्रकृति की खुली कोख

देती संदेश बाल रवि के जन्म का।

नीरभ्र नीलाकाश कर ज्योतित

छेडती भैरवी के मधुर मादक स्वर,

या कि निर्धूम धधकती वही ज्वाल

या कि माणिक भरी मंजूषा विशाल

सृष्टि के भाग्योदय का आलेख

या कि बिखरा पिंग पराग

प्राची के आनन पर अवगुण्ठन सी

महाकाश की बाहों में आबध्द ओ महाभाग

अम्बर का उदर चीर उतर कर आई हो

कौन हो, क्या हो

किसके हृदय की अभिलाषा हो

किस तत्व की परिभाषा हो

ओ रहस्यमयी जिज्ञासा।

तुम जैसे चैतना की ज्योति का सनातन जागरण

हुआ आत्म प्रकाश और तब जैसे

चटकी गुलाब की कली खिली और वह बोली

मै ऊषा हूं, हां ऊषा हूं ऊषा। 

भंवरलाल भाटी 'कुलिश' के उपनाम से लिखते रहे। उन्होंने जीवन के उन दृश्यों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया जो अमूमन छूट जाया करते हैं। वे उन दृश्यों को क़ैद करने का हुनर जानते थे। वे अपनी दृश्यावली और शब्दावली को एकरूपता के साथ अभिव्यक्त निरंतर करते रहे मगर कहीं कुछ भिन्नता भी नज़र आती रही। यह उनकी अपनी शैली रही और इस शैली को उन्होंने जिया भी। भाटी जी का जन्म 15 अप्रैल 1926 को हुआ और अवसान 14 मार्च 2010 को हुआ। उनकी रचनाएं उन्हें आज भी उनकी मौजूदगी का अहसास करवाती हैं।

यह जो अस्तित्व है विद्यमान मेरे होने का प्रमाण

ये सब मुझसे है, मैं इनसे नहीं ये सब मेरे कारण है

मैं इनके कारण नहीं।

मैं सागर की उत्ताल तंरगों में हहराता हूं

बहता हूं उनचासो प्रभंजन में, मैं ही बहता हूं।

मैं ही अन्धकार बन लील लेता हूं जगत

और उद्भासित करता पुन: उसे

अपनी ही किरणों के प्रकाश में।

मेरी ही शीतल चांदनी में धरती नहाती है

तारों से मुसकाती है, मेरी ही मंद-मंद फुहार से

मलिन मुख धो लेती धरा।

मेरे अनेक रुप हैं, मैं अभिमान हूं,स्वाभिमान हूं

घमण्ड, दर्प, अंहकार भी, ये सब मेरी शाखाएं हैं

इस सृजन में इन सबका अपना स्थान

महत्व है मर्यादा है।

तुम समझ जाओगे गहरे में डूबो

सबकी अपनी अपनी लक्ष्मण रेखा है,

मेरी भी है मूल रुप से मैं ही सृष्टि का कारण हूं

इसलिए विवश हूं,कहना पड रहा है निवेदन है मेरा

दार्शनिकों। संतों। महन्तों।

मनीषियों, महापुरुषों, उपदेशकों, विचारकों

भक्तों, सत्गुरुओं, मेरे पीछे मत पड़ो

मत करो मेरी चरित्र हत्या

मैं संसार विनाश की जड़ नहीं।

मैं तो सृजन का सृष्टि का मूल हूं

मैं हूं तो आप भी है यदि समेट लिया मैंने

अपने आपको इस सृजन का इस अस्तित्व का

क्या होगा? कभी सोचा आपने? 

सृजनशील व्यक्ति सदैव सृजन की बात करता है। भंवरलाल भाटी जी ने भी अपने साहित्य में सदैव उसी सृजन का पक्ष लिया। वे अपने शिल्प और अभिव्यक्ति के ज़रिए निरंतर सृजन की ही बात  कहते रहे। उनका कला की विभिन्न विधाओं से जीवन तो संपर्क और उनकी रचनात्मक सक्रियता आज भी उनका अहसास करवाती है।

 आशीष दशोत्तर

-12/2, कोमल नगर,

 बरबड़ रोड

रतलाम (म.प्र.)

मो.नं. - 98270 84966