आशीष दशोत्तर
सृजन से व्यक्तित्व निखरता है, कृतित्व विस्तारित होता है और कलम धन्य होती है। जब ऐसी क़लम से रचनात्मक अभिव्यक्ति होती है तो वह न सिर्फ अपने वक्त का आईना होती है बल्कि आने वाले वक्त के लिए दस्तावेज़ भी।
निरंतर सृजनशील व्यक्तित्व, चिंतक, विचारक, कवि, प्रवचनकार, समीक्षक एवं लेखक प्रोफ़ेसर अज़हर हाशमी जी की क़लम भी ऐसी ही वैचारिक पृष्ठभूमि को रेखांकित करती है। हाशमी जी की क़लम से निकले हुए वैचारिक संस्मरण बीते समय के साहित्यिक आयोजनों, महत्वपूर्ण क़िरदारों का तो वर्णन करती ही है साथ ही साहित्य की उस विधा को भी पल्लवित करती है जो संस्मरण और जीवनवृत्त लेखन से जुड़ी है।
हाशमी जी अपने संस्मरण और समीक्षाओं के जरिए 'सृजन के सहयात्री' पुस्तक में एक अलग ही रूप में नज़र आते हैं । अपने समकालीनों, वरिष्ठों एवं अनुजों पर समानदृष्टि डालने का हुनर उनके पास है । वे इस पुस्तक की शुरुआत में अपने अग्रज कवि गिरिजाकुमार माथुर, शिवमंगल सिंह सुमन पर जितनी गहनता से बात करते हैं, उतनी ही आत्मीयता से पुस्तक के आख़िर में अपनी सुशिष्या डॉ. प्रवीणा दवेसर के बारे में भी गंभीरता से बात करते हैं। यह उनके समानदृष्टा पक्ष को विस्तारित करता है।
'सृजन के सहयात्री' पुस्तक अग्रज से अनुज तक जाने का अनुष्ठान है। यह पुस्तक साहित्य की परंपरा का प्रतिमान है। यह पुस्तक सृजन का सम्मान है। यह पुस्तक हाशमी जी की कलम का कमाल है। साहित्य के ललाट पर गहनता की गुलाल है।
हाशमी जी की अपनी अलग शैली और गहन दृष्टि से हर व्यक्तित्व के भीतर जाकर पड़ताल करते हैं। वे इन क़िरदारों के साथ बिताए वक्त और उनसे जुड़े संस्मरणों का ज़िक्र तो करते ही हैं साथ ही उनकी साहित्यिक खूबियों से भी परिचित करवाते हैं। वे यहां साहित्यकार, व्यंग्य और हास्य, गीत, ग़ज़ल ,उर्दू एवं मराठी के लेखकों पर अपनी क़लम चला कर उनके साथ अपने संस्करणों को साझा करते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि हाशमी जी निरंतर अपनी साहित्यिक यात्रा में शामिल रहे साहित्यिक क़िरदारों पर अपनी क़लम चलाते रहे हैं, और नवभारत समाचार पत्र में उनका यह स्तंभ कई वर्षों से प्रति रविवार को प्रकाशित भी होता रहा है, जो अब भी जारी है। ऐसे ही क़िरदारों में से 'सृजन के सहयात्री' में उन्होंने इन साहित्यकारों के साहित्यिक एवं लेखकीय पक्ष पर अपने संस्मरण साझा किए हैं।
उनकी अपनी शैली से किसी भी व्यक्तित्व को आसानी से समझा जा सकता है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी के साथ अपने संस्मरण में वे एक वाक्य कहकर समूची व्यंग्य परंपरा की व्याख्या कर देते हैं। इस संस्मरण की शुरुआत में हाशमी जी कहते हैं "मेरे मत में पद्मश्री शरद जोशी व्यंग्य के विश्वविद्यालय थे।" इस एक वाक्य से व्यंग्य की पूरी परंपरा पर वे दृष्टिपात भी कर जाते हैं और सभी को आईना भी दिखा जाते हैं। बालकवि बैरागी से जुड़े संस्मरण में वे कहते हैं "मेरे मत में बालकवि बैरागी ऐसे साहित्यकार हैं जो तूफान से तनावग्रस्त नहीं होते, झंझावात से पस्त नहीं होते, सुनामी से संत्रस्त नहीं होते।'
हाशमी जी ने पुस्तक में डॉ. प्रेम भारती पर सात संस्मरण लिखे हैं। ये सभी संस्मरण डॉ. प्रेम भारती का पूरा व्यक्तित्व उजागर कर देते हैं। कोई इन संस्मरणों को पूरा न भी पढ़े और सिर्फ हाशमी जी के इस वाक्य को ही पढ़ ले तो वह प्रेम भारती जी के पूरे व्यक्तित्व से परिचित हो सकता है। हाशमी जी कहते हैं " मेरे मत में डॉ. प्रेम भारती अक्षरों के अभिनेता हैं, शब्दों के नियंता हैं, व्याकरण के सारथी हैं, साहित्य के महारथी हैं, कविता उनके लिए तप है, लेखन उनके लिए जप है, उनकी कविता सृजन की साधना है, उनका लेखन लोकमंगल की आराधना है, वे जब रचनात्मकता का बीड़ा उठाते हैं, संस्कृति और साहित्य का सेतु बनाते हैं । वे अक्षरों के अभियंता हैं इसीलिए हिंदी व्याकरण के वैभव और महत्ता का महल निर्मित करते हैं।
शब्द की शक्ति से निर्मित इस महल में बारहखड़ी की बारादरी है, वर्णमाला का विधान है, अल्पविराम का आरंभ द्वार है, अर्धविराम का आंगन है, पूर्ण विराम का प्रकोष्ठ है, संज्ञा की सीढ़ियां हैं, समाज के झरोखे हैं, सर्वनाम के दरवाज़े हैं, क्रिया की खिड़कियां हैं, संयोजक चिन्हों की दीवारें हैं, विशेषण की छत हैं।" इतना जान लेने के बाद शायद ही कोई ऐसा हो जो डॉ. प्रेम भारती के व्यक्तित्व से पूरी तरह परिचित न हो पाए। यही हाशमी जी की कलम का कमाल है।
हाशमी जी 'सृजन के सहयात्री' में गिरिजाकुमार माथुर, शिवमंगल सिंह सुमन, नरेश मेहता, शरद जोशी, वीरेंद्र मिश्र, श्रीकृष्ण सरल, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, बालकवि बैरागी, प्रेम भारती, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, कुंज बिहारी पांडे, शैल चतुर्वेदी, प्रदीप चौबे, माणिक वर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी, मुकुट बिहारी सरोज, पवार राजस्थानी, राजेंद्र अनुरागी, राम कुमार चतुर्वेदी चंचल, परशुराम शुक्ल विरही, बशीर बद्र, मेहरुन्निसा परवेज़, त्रिभाषा साहित्यकार डॉ. कवठेकर और डॉ. प्रवीणा दवेसर के व्यक्तित्व पर आत्मीयता से प्रकाश डाला है। हर एक संस्मरण में इन व्यक्तित्व के साथ बिताए हाशमी जी के पलों का भी ज़िक्र है।
एक लंबे समय तक महाविद्यालय में अध्यापन के दौरान विद्वानों से सामीप्य, राष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रभावी उपस्थिति से वाचिक परंपरा के कवियों से आत्मीयता और शोध प्रेरक के रूप में शोधार्थियों को दिए मार्गदर्शन में हाशमी जी ने उनके व्यक्तित्व का गहनता से अध्ययन किया जिसे उजागर करने का महत्वपूर्ण कार्य पुस्तक में किया है। यह पुस्तक हर एक व्यक्तित्व के जीवन पर प्रकाश डालती है। पुस्तक उस समृद्ध परंपरा का भी ज़िक्र करती है जिसमें साहित्य को पूर्ण सम्मान था, साहित्य का अपना प्रतिमान था। आज साहित्य के प्रति संचार माध्यमों की अधिकता ने एक अलग तरह का माहौल बना दिया है, ऐसे में हाशमी जी की यह पुस्तक सृजन के नए द्वार भी खोलती है, सृजन के प्रति चेतना भी जागृत करती है, सृजन की परंपरा से भी अवगत कराती है और सृजन के प्रति नई पीढ़ी को आकर्षित भी करती है। इस पुस्तक के बाद भी साहित्य प्रेमियों को हाशमी जी की सृजन यात्रा के कई सारे संस्मरणों की प्रतीक्षा है जो निश्चित रूप से आने वाले समय में ऐसी ही पुस्तक के ज़रिए पूर्ण होगी।
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