जन्मदिन पर विशेष... प्रीति जलज : सफलता की समर्पित सीढ़ी- श्रद्धा जलज घाटे
ख्यात साहित्यकार डॉ. जयकुमार जलज खुद सफल हो पाए क्योंकि प्रीति जलज जैसी उनकी जीवन संगिनी उनके साथ थें। कुशल गृहिणी, कुशल गृह प्रबंधक और सफलता की समर्पित सीढ़ी प्रीति जैन को जन्मदिन (12 मार्च) के मौके पर प्रस्तुत है एक बेटी की भावांजलि।

श्रद्धा जलज घाटे
डॉ. जयकुमार जलज जी की पत्नी श्रीमती प्रीति जलज, मेरी माँ, छत्तीसगढ़ के एक धार्मिक और बड़े संयुक्त परिवार से थीं। उनका 12 मार्च, 1942 को जन्म हुआ था। विवाह पूर्व ही स्कूल की पढ़ाई के साथ माँ ने जैन सिद्धांत प्रवेशिका, तत्वार्थ सूत्र, मोक्ष-शास्त्रम, द्रव्य संग्रह, नाम माला सौ श्लोक आदि परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं तथा विवाह पश्चात स्नातक किया। शिक्षा और संस्कार ने उन्हें एक मजबूत और संवेदनशील व्यक्तित्व दिया था।
पिताजी जैन सिद्धांतों का परिपालन तो करते थे, पर माँ का विवाह पश्चात नित्य देव-दर्शन का नियम छूट सा गया था। हर परिस्थिति के अनुरूप अपने आप को ढालकर अपना दायित्व निभाते चलना मां के संस्कार में था। वह पिताजी की सफलता की समर्पित सीढ़ी थीं। उनका व्यक्तित्व संत के समान निर्मल था। चेहरा सौम्य, शांत और मुस्कुराता हुआ। वे कभी-कभी हमें गणित और इतिहास पढ़ाती थीं। वे बहुत व्यवहार कुशल थीं। घर आए अतिथि का पूरे मनोयोग से स्वागत करना और सभी की कुशल पूछना उनकी आदत थी। उनकी हंसी बहुत निश्चल और उन्मुक्त थी।
माँ और पिताजी दोनों का जीवन बहुत व्यवस्थित, संयमित, नियमित और संतुलित था। पिताजी को सादा जीवन पसंद था। माँ ने पिताजी की इस इच्छा का हमेशा सम्मान किया। कभी चटक रंग नहीं पहने। उनकी आकांक्षाएँ बहुत सीमित थीं। वे कुशल गृहिणी थीं। पिताजी की सन् 2000 में एंजियोप्लास्टी हुई थी। पिताजी के लिए कम तेल, घी और बगैर मिर्च का पौष्टिक एवं स्वादिष्ट भोजन धीमी आंच में बनाती थीं। पिताजी को कब, और क्या खाना चाहिए इस बात का सदैव ध्यान रखती थीं। पिताजी की आंखों से ही पहचान जाती थीं, तुरंत पूछतीं थीं चाय बना दूं क्या? खाना लगा दूं क्या?
उम्र के 82वें वर्ष में भी एकदम स्फूर्ति से उठकर पिताजी के सभी कार्य जिम्मेदारी से करती थीं। पिताजी को प्रतिदिन मौसंबी का रस निकालकर जरूर देती थीं। चकली, खमण, आटे के लड्डू बनाती थीं। मां चाय भी बहुत अच्छी बनाती थीं। पति डॉ. घाटे मुझसे कहते थे, तेरे हाथ से चाय ऐसी क्यों नहीं बन पाती। मां एकदम मुझे बचा लेती थीं, ये गाय के दूध की है इसलिए ज्यादा स्वादिष्ट लगती है। वे एक कुशल गृह प्रबंधक भी थीं। गृह कार्य के लिए सहायक जिन्हें हम रणजीत भैया, आशा आंटी, आरती दीदी, आपा कहते थे, अगले दिन क्या करेंगी, माँ पहले से ही लिस्ट तैयार कर लेती थीं। उन्हें कार्य करते एक-डेढ़ घंटे से अधिक हो जाता तो मां उन्हें अवश्य ही कुछ चाय, नाश्ता या फल देती थीं।
सुबह अखबार पढ़ने और दोपहर में कोई पुस्तक-पत्रिका पढ़ने की उन्हें आदत थी। पिताजी के साथ मिलकर उन्होंने कई सामाजिक कार्य किए। पिताजी रोटरी के मानद सदस्य थे। बैठकों में वे हमेशा उनके साथ जाती थीं। इसके अलावा दूसरे आयोजनों में भी साथ रहती थीं। उनमें इतनी सरलता, आत्मीयता और गरिमा थी कि सहज ही सबके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव पैदा हो जाता था।
एमएससी फाइनल करते हुए बैंक की लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब मौखिकी के लिए मैं और पिताजी सुबह ट्रेन से इंदौर जा रहे थे तब मेरा गला खराब हो गया था। वह माँ ही थीं जो हमारे पारिवारिक डॉक्टर जोशीजी के घर जाकर जल्दी से दवाई ले आई थीं। मेरी बेटियाँ श्रुति एवं तन्वी तो कहती थीं, नानी आपसे भी अच्छी हैं। हमारे लिए नए-नए डिजाइन के स्वेटर बनाती हैं और हमारे साथ खेलती भी हैं। माँ को पिछले 35 वर्ष से डायबिटीज थी। वह बहुत सख्त परहेज से रहती थीं। मेरी दोनों बेटियाँ नानी से इतनी जुड़ी हुई थीं कि सिर्फ इतना कहने पर कि जब तुम प्रथम आओगे तभी रिजल्ट के दिन नानी आइसक्रीम खाएँगी, फौरन पढ़ने बैठ जाती थीं। जब दोनों ने प्रथम प्रयास में ही शासकीय मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और एमडी किया, तो वे सबसे ज्यादा खुश थीं। मेरे चाचा, बुआ सभी माँ के पास रहकर ही पढ़े थे। मेरी सासु जी और ससुर जी उन्हें बहन मानते थे। मेरे पति डॉ. पद्म घाटे से वे पुत्रवत स्नेह रखती थीं।
माँ या पिताजी दोनों में से किसी के भी अस्वस्थ होने पर वे हमारे घर रहने आते थे। मां को हमारे घर बहुत अच्छा लगता था। लेकिन तबीयत ठीक होने के अगले ही दिन दोनों वापिस अपने घर चले जाते थे। माँ ने पिताजी को दान देने, गरीब और जरूरतमंद विद्यार्थियों की मदद करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया। गांव के गरीब विद्यार्थियों को वे भोजन भी करवाती थीं। पिताजी के विद्यार्थियों के प्रति उनके मन में सदैव स्नेह-भाव रहता था। पिताजी की सेवानिवृत्ति के अगले दिन माँ की आँत का चार घंटे चलने वाला एक ऑपरेशन हुआ था। सावधानी के लिए 6 कीमोथैरेपी भी की गई थी। माँ ने बड़ी बहादुरी से अपनी बीमारियों में भी हम सबकी हिम्मत बंधाई। वे पिताजी के साथ प्रतिदिन शाम को एक-डेढ़ घंटे पैदल घूमने जाती थीं।
एक शाम उम्र के 70वें वर्ष में वे गिर गईं। उनका हिप रिपप्लेसमेंट का ऑपरेशन हुआ। हम सबके साथ पिताजी ने भी उनकी खूब सेवा की थी। पिछले कुछ वर्षों से वह दिन में चार बार इंसुलिन इंजेक्शन खुद ही लगाती थीं। माँ पिताजी के साथ साये के तरह रहती थीं। और उनके लिए बहुत चिंतित रहती थीं। मैं जब भी उनके यहाँ जाती थी तो शिकायती लहजे में कहती थीं ‘ये एक हाथ में चश्मा, मोबाइल और दूसरे हाथ में अख़बार और बिना छड़ी लिए चलते हैं।’ झुक-झुककर आँगन से पत्ते उठाते हैं। माँ की बात सुनकर पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहते थे और मैं कहती थी- ठीक है! अब पापा ध्यान रखेंगे। दोनों का आपस में खूब सामंजस्य और समर्पण था।
पिछले कुछ वर्षों से पिताजी समारोह आदि में ज्यादा नहीं जा पाते थे। छोटे-छोटे समूह में उनके साथी, विद्यार्थी उनसे मिलने आया करते थे। वह माँ ही थीं जो सारी व्यवस्था देखती थीं। मां के घर की अलमारियों, पेटियों, सूटकेसों में किताबें ही किताबें रहती थीं। वे उनकी साज-संभाल करती थीं। किताबों को कभी-कभी धूप में रखती थीं, उनमें नेफ्थलीन बॉल्स भी डालती रहती थीं। उनके बगीचे में कई तरह के पौधे थे, कई रंगों के गुलाब थे। उनकी वे बड़े यत्न से देखभाल करती थीं।
माँ ने पिताजी को घर की जिम्मेदारियों से हमेशा मुक्त रखा। घर में एकदम शांत वातावरण रखा ताकि उन्हें नौकरी और साहित्य रचना के लिए पर्याप्त समय मिल सके। विगत कुछ वर्षों से पिताजी की कलाई और उंगलियों में ज्यादा लिखने से दर्द होने लगा था, तब पिताजी बोलते जाते थे और माँ धार्मिक पुस्तकों के अनुवाद लिखती थीं। वे हमेशा पिताजी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलीं।
मुझे इस बात का संतोष है कि मेरी छोटी बहिन स्मिता 2023 में तीन बार मां से मिलने मुंबई से आई थी और अंतिम बार, अंतिम जगह जब हम चारों (पिताजी, मां और हम दोनों बहनें) साथ गए थे वह मंदिर ही था। जब भी हम लोग दर्शन को जाते थे, मां कहा करती थीं, 'देखो कितनी अद्भुत और वीतरागी 'चंदा प्रभु भगवान की प्रतिमा है। माँ ने हम बहिनों को कभी डांटा नहीं। हमेशा समझाया, अच्छे संस्कार दिए, जीवन मूल्य सिखाए, गृह कार्य सिखाए। मां! हमें आपकी स्मृति दिन में अनेक बार आती है। आपका जीवन हमें सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। आपने जितनी शांति से जीवन को जिया, उतनी ही शांति से देह भी त्यागी। देखते ही देखते 10 मिनट में आप 14 दिसंबर 2023 को हम सबको छोड़कर इहलोक से हमेशा के लिए चली गईं। आपकी अचानक मृत्यु से हम सबको गहरा आघात पहुंचा। आप जाते-जाते भी अपने नेत्रों की ज्योति से किसी के जीवन में व्याप्त अंधकार को दूर कर गईं।
श्रुति की दोनों छोटी बेटियाँ मिशी और माही छुट्टियों में घर आई थीं। आपको ढूंढ रही थीं। मैंने बताया कि आकाश में जो सबसे चमकीला सितारा है वह आपकी बड़ी नानी हैं। माँ का घर हमारे लिए विद्या मंदिर के समान था, जो अब सूना हो गया है। वहां हरसिंगार के फूलों की चादर आंगन में अब भी बिछती है, पर उसमें वह सफेदी नहीं। फुटबॉल लिली और पीले गुलाब भी खिले हैं, पर उदास हैं। कोई नहीं अब कहने वाले अरे… ! श्रद्धा आई है।
मां! इतना तो सुनती जाओ... पिताजी ने आपके लिए क्या लिखा है-
नयन थे मेरे, निरंतर देखती तुम थीं।
पांव थे मेरे, मगर बस तुम्हीं चलती थीं।
जब मुझे कुछ सूझ पड़ता था नहीं।
तुम दिए की तरह से निष्कंप जलती थीं।
मानने तुमने नहीं दी, हार जीवन में।
मां, आप प्रणम्य हैं। आप जैसी पुण्यात्मा की बेटी होना हमारे लिए सौभाग्य की बात है। आप हमारी स्मृति में सदैव जीवित रहेंगी। आपके समर्पित और असाधारण जीवन की स्मृतियाँ ही अब हमारा पाथेय हैं। हम सबकी ओर से आपको सादर शत्-शत् नमन…!
श्रद्धा जलज घाटे
(द्वारा डॉ. पद्म घाटे)
अरिहंत पैथोलॉजी लैब
15 वेदव्यास कॉलोनी
रतलाम (म.प्र.) - 457001
मो. नं. 9425103802