व्यंग्य : 'मात्र कृपा' और 'गृह शांति'... इन शब्दों के सही या गलत होने के चक्कर में मत पड़िए, सिर्फ पढ़िए और आनंद लीजिए

भ्रष्टाचार आज के दौर में शिष्टाचार है। इसमें मातृ कृपा नहीं होती बल्कि मात्र कृपा होती है। इसी तरह ग्रह शांति से ज्यादा महत्वपूर्ण गृह शांति है। युवा व्यंग्यकार आशीष दशोत्तर का व्यंग्य यही बताने का प्रयार कर रहा है, आप भी पढ कर देखिए।

व्यंग्य : 'मात्र कृपा' और 'गृह शांति'... इन शब्दों के सही या गलत होने के चक्कर में मत पड़िए, सिर्फ पढ़िए और आनंद लीजिए
आशीष दशोत्तर

 आशीष दशोत्तर

जीवन भर की जोड़-तोड़, जुगाड़ और जोर आजमाइश का नतीजा एक आलीशान भवन के रूप में इस तरह तब्दील होगा, उन्होंने कभी सोचा नहीं था। दोनों हाथों से समेटने में उनका कोई सानी नहीं रहा। कभी-कभी तो उन्हें ईश्वर पर क्रोध आया कि ये हाथ दो ही क्यों दिए हैं। चार-पांच और होते तो कितना बटोरा जा सकता था। हाथ खाली न होने पर देने वाले जेब में ठूंस-ठूंस कर दे गए। उस समय उन्हें बहुत बुरा लगा कि कोई दे रहा है और लेने के लिए हाथ खाली नहीं।

दफ़्तर में बैठकर, रास्ते में ऐंठ कर और हर किसी को सेट कर, उन्होंने हर किसी से भरपूर बटोरा। किसी को भी नहीं छोड़ा। न किसी रिश्ते का लिहाज किया, न किसी नाते के कारण ना-नुकुर किया। लेने में किसी स्टेटस को मेंटेन करने के चक्कर में वे कभी नहीं पड़े। जहां से जितना, जैसा भी मिल पाया वह लिया। कभी प्रेम से, कभी पुचकार कर, कभी दुत्कार कर, कभी डरा कर तो कभी समझा कर। हर तरह से लिया ही लिया।

उनका कहना रहा, एक जीवन में अगर आदमी इतना भी न कर सके तो उसका जीवन ही बेकार है। आदमी आया किस लिए है ? सोरने और बटोरने के लिए। उसे ऊपर वाले ने दोनों हाथ दिए किस लिए हैं? बेवकूफ़ हैं वे लोग जो इन दोनों हाथों का उपयोग बोझा ढोने में करते हैं। अरे, नरम हाथों से कुछ नरम नोट लीजिए। वे दोनों हाथों का इस्तेमाल किसी नेक काम में करते रहे। कभी दाएं हाथ से बायीं हथेली को खुजाते  रहे तो कभी बाएं हाथ से दाएं हाथ की हथेली को। उनकी हथेली की खुजली कभी कम नहीं हुई और न ही कभी आवक।

इतनी मेहनत, मशक्कत के बाद आखिर उनका यह महलनुमा ग़रीबखाना खड़ा हो ही गया। मकान का नाम उन्होंने रखा 'मात्र कृपा'। पड़ोस में रहने वाले बुद्धिजीवी को आमंत्रण देने गए तो आदतन बुद्धिजीवी ने आमंत्रण-पत्र में ग़लतियों की तरफ़ इशारा किया। इसे 'मात्र कृपा' नहीं, 'मातृ कृपा' लिखना था। वे हंसते हुए कहने लगे, यह 'मातृ' कृपा से नहीं, 'मात्र', कृपा से ही बना है, इसलिए इसका नाम सोच-समझ कर रखा है।  और हां, आप 'गृह शांति' में आना मत भूलिएगा। बुद्धिजीवी फिर बोला, आपने 'गृह शांति' लिखा है, 'ग्रह शांति' लिखना था।

वे  फिर हंसते हुए बोले, हम जैसों के तो नौ ग्रह वैसे ही बलवान होते हैं, उनकी शांति के लिए क्या पाठ करना। हमें तो इस 'गृह' की शांति कायम रखने के लिए पाठ करना है। वे हंस रहे थे, बुद्धिजीवी उनके ज्ञान पर अचंभित और अपने ज्ञान पर क्षुब्ध था।

आशीष दशोत्तर

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