पते की बात : चुनाव, आरक्षण और भोली-भाली जनता...

नारा तो हम सब एक हैं का सभी लगाते हैं लेकिन चुनाव आते ही यह एकता अनेकता में बंटी दिखाई देती है। खासकर आरक्षण के मुद्दे पर न सिर्फ राजनीतिक दल बल्कि जनता भी यह तय नहीं कर पाती है कि आरक्षण से देश का कितना भला होने वाला है। इसी पर विचारक अऩिल पेंडसे ने पते की बात की है। आप भी पढ़िए और तय कीजिए कि क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए ?

पते की बात : चुनाव, आरक्षण और भोली-भाली जनता...
अनिस पेंडसे

अनिल पेंडसे

मध्य प्रदेश में होने वाले निकाय / पंचायत चुनाव होने के समाचार से सभी समाचार-पत्र भरे पड़े हैं। सोशल मीडिया पर लंबी-लंबी बहस देखी जा रही है। अगर SC (सुप्रीम कोर्ट) ने ये कहा है तो नये आरक्षण के नियमों के अनुसार अब क्या होगा? क्या सभी वार्डों में पुनः आरक्षण होगा? क्या केवल General (सामान्य) वार्डों में ही आरक्षण की प्रक्रिया फिर से दोहराई जाएगी? क्या केवल पुरुषों वाले वार्ड में प्रक्रिया होगी या महिला वाले वार्ड में भी? ऐसे तमाम प्रश्न सामने आ रहे हैं। अभी भी वार्ड के आरक्षण की स्थिति न प्रत्याशियों को स्पष्ट है, ना जनता को।


 
आपने देखा होगा जब भी किसी भी दल के नेता कोई राजनैतिक चुनावी भाषण देते हैं तो जनता से ‘भारत माता की जय’ का नारा लगवाते हैं। मंच से जोरदार आवाज में ‘हम सब एक हैं’ बुलवाते हैं। पर वास्तविकता में जब चुनाव होते हैं तो खुले आम कहते हैं कि- ‘नहीं तुम सभी एक नहीं हो, कुछ SC (अनुसूचित जाति) हैं, कुछ ST (अनुसूचित जनजाति) हैं, कुछ OBC (अन्य पिछड़ा वार्ग) और General (सामान्य) हैं। खुले आम दोगलापन जारी है।

एक दल कहता है कि हम xx% आरक्षण देंगे तत्काल दूसरा दल कहता है कि हम उनसे अधिक xxx% देंगे। लेकिन कोई भी नेता, किसी भी दल का, यह नहीं कहता कि सारे भारतवासी एक हैं। हम भारत माता के सभी पुत्रों को जाति का आधार बनाकर आपस में लड़वाया जा रहा है। दुःख तो इस बात का है कि जिस न्यायालय से न्याय की अपेक्षा हो वह भी स्वतः संज्ञान न लेकर इसी प्रक्रिया में ही इधर-उधर करता दिख रहा है। 
आप सोचिये, जो व्यक्ति 15 अगस्त 1947 को पैदा हुआ था वह अब 75 वर्ष का हो चुका है। उसका संपूर्ण जीवन इस जातिगत आरक्षण की भेंट चढ़ गया। आठ दशकों से यही चल रहा है। क्या अब भी इस भारत में जातिगत आरक्षण की कोई आवश्यकता रह गई है? 

(क्या वाकई ऐसा संभव है...?)

  हमें आपस में अपने मोहल्ले में, अपने वार्ड में, अपने पड़ोसियों में जातिगत आधार पर बांटा जा रहा है। क्या ऐसे चुनाव से देश का भला हो सकता है? ऐसे में समझदार व्यक्ति की स्थिति उस अर्जुन के समान हो गई है जिसके सामने युद्ध के मैदान में उसके अपने लोग खड़े हैं, लेकिन उसे उपदेश देने कोई श्रीकृष्ण नहीं दिख रहा। कुछ राजनैतिक दलों का काम तो लोगों को जानबूझकर बाँटना ही है। जैसे भी हो जनता को एक मत होने दो।

वहीँ कुछ राजनैतिक दल न चाहते हुए भी अन्य दलों के मकड़जाल में उलझे दिखाई देते हैं। ऐसे में जनता अत्यंत भ्रमित अवस्था में आ गई है। इस बात पर चुनाव आयोग में बहस चल रही है कि अगर चुनाव में NOTA को प्राप्त संख्या जीतने वाले प्रत्याशी से ज्यादा हो तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए। कोई भी दल ये नहीं कह रहा कि चुनाव जातिगत आरक्षण से मुक्त हो। 

मध्य प्रदेश की कथा प्रेमी, भजन संध्या प्रेमी, भंडारा प्रेमी जनता जब तक इन राजनेताओं को धार्मिक मंच पर स्वीकार करती रहेगी, तब तक कोई विशेष परिवर्तन जैसी बात नहीं हो सकती है। इसीलिए कोई भी नेता हमें ‘विज्ञान संध्या’ का आयोजन करता दिखाई नहीं देता। चुनाव जीतना कोई सेवा न होकर Simple Mathematics (सामान्य गणित) बन गया है जिसमें जीतना जरुरी ना होकर सामने वाले प्रत्याशी के वोट कैसे काटे जा सकते हैं इसकी प्रतियोगिता मात्र बन कर रह गया है। आइये, हम सभी मिलकर इस भारत को बाँट दें, यही ध्येय रह गया है।

जातिगत जनगणना के सर्वे पर करोड़ों रुपए लगाए जा रहे हैं। योग्यता को पैरों तले कुचल कर नया भारत बनाने चले हैं। फिर भी देखते हैं, आने वाले चुनावों में general category (सामान्य श्रेणी) जनता क्या गुल खिलाती है। यह देखकर बड़े-बड़े पूर्वानुमान के दावे करने वाले आकलनकर्ता अपनी ऊँगली स्वयं ही अपने दातों तले दबाते दिखाई दे सकते हैं।

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लेखक अनिल पेंडसे विचारक हैं।
मो. नं. +91 9425103895