शब्द-रंग ! ‘साजन! होली आई है!’ आओ ‘केशर की, कलि की पिचकारी’ से ‘रचें रंग के छंद!’ ‘फागुन का संगीत’ सुनें फिर ‘देख बहारें होली की’
रंग, गुलाल, फूलों और पानी के साथ तो हम होली खेलते ही हैं। एसीएन टाइम्स के इस प्लेटफॉर्म पर आपके लिए शब्द-रंग जुटाए गए हैं जो इस होली के पर्व का आनंद और बढ़ा देंगे।
फागुन का महीना है, हर तरफ उल्लास है। कहीं गालों पर गुलाल मला जा रहा है तो कहीं पिचकारी तन भिगो रही। आओ हम भी सराबोर हो जाएं इस होली पर ‘शब्द-रंग’ से। एसीएन टाइम्स शब्दों के ये रंग खास आप के लिए लाया है जो हमारे कवियों और रचनाकारों की कलम से निकले हैं। इन रंगों से न तन भीगेगा, न गाल गुलाबी होंगे लेकिन पढ़कर, सुनकर और गुनगुना कर अहसास वैसे ही होंगे। हमें अंतर्मन को भिगो देने वाली ऐसी होली खेलने का सुख देने वाले सभी दिवंगत और हमारे बीच उपस्थित रचनाकारों का आभार।
1.
केशर की, कलि की पिचकारी
पात-पात की गात संवारी।
राग-पराग-कपोल किए हैं,
लाल-गुलाल अमोल लिए हैं
तरू-तरू के तन खोल दिए हैं,
आरती जोत-उदोत उतारी-
गन्ध-पवन की धूप धवारी।
गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत,
संग मृदंग तरंग-तीर-हत
भजन-मनोरंजन-रत अविरत,
राग-राग को फलित किया री
विकल-अंग कल गगन विहारी।
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
(2)
होली के त्योहार का, तब ही है आनंद।
जब निश्छल-निर्मल हृदय, रचें रंग के छंद।।
होली यानी रंग की, मुरली की लय-ताल।
होली यानी प्रेम से, मलें अबीर-गुलाल।।
होली में हर्षित रहे, प्रेम और सद्भाव।
रंगों का त्योहार है, दूर करें दुर्भाव।।
होली मतलब रंग का, रंगों से संवाद।
होली सबसे कह रही, बना रहे सौहार्द।।
होली के इस पर्व पर, शिकवे हो सब दूर।
आपस में कायम रहे, स्नेहभरा दस्तूर।।
- प्रो. अज़हर हाशमी
(रचनाकार ख्यात कवि, चिंतक, लेखक, समालोचक हैं। रचना हिंदी दैनिक पत्रिका से साभार।)
(3)
जब फागुन रंग झमकते हो तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
खूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे।
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे।
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे।
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे।
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो।
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक्कड़ हो।
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो।
लड़ भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो।
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।
-नज़ीर अकबराबादी
(रचनाकार महान भारतीय शायर रहे हैं जिनका जन्म 1737 और निधन 1830 में हुआ)
(4)
रंग खुद ही बोलते हैं
तोड़कर ख़ामोशियों को
रंग खुद ही बोलते हैं।
ये बिखरने की हमेशा सीख ही देते यहां पर,
ये हमें दिखने लगेंगे,देख लेंगे हम जहां पर।
सादगी में ये सदा ही
एक नवरस घोलते हैं।
तोड़कर ख़ामोशियों को
रंग खुद ही बोलते हैं।
लाल,नीले या हरे का कोई इनको नाम न दो,
बांटकर फिर दायरों में कोई भी इल्ज़ाम न दो।
ठान लेते हैं कभी
ये तब सिंहासन डोलते हैं।
तोड़कर ख़ामोशियों को
रंग खुद ही बोलते हैं।
नफ़रतों से दूर रहने की यही तालीम देंगे,
और बदले में कभी ये आपसे कुछ भी न लेंगे।
बैर की हर गांठ को
ये प्रेम से ही खोलते हैं।
तोड़कर ख़ामोशियों को
रंग खुद ही बोलते हैं।
- आशीष दशोत्तर
(संपर्क - 9827084966)
(5)
साजन! होली आई है!
सुख से हंसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन! होली आई है!
हंसाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!
साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है!
साजन! होली आई है!
साजन! होली आई है!
यौवन की जय!
जीवन की लय!
गूंज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!
-फणीश्वर नाथ रेणु
(रचनाकार ख्यात साहित्यकार रहे जो पद्मश्री से सम्मानित हुए)
(6)
स्वयँ रँगे सब को रंग डाले
फागुन के अंदाज निराले।
फूल-फूल महुआ इतराये
पोर-पोर अम्बवा बौराये
नटखट नट को नटी सम्भाले
स्वयं रँगे सब को रँग डाले।
भली लगें बेला की कलियाँ
महक रहीं मधुवन की गलियाँ
परिभाषित हो रहे उजाले
स्वयँ रँगे सब को रंग डाले।
बासन्ती रँग सँग में ले लें
चलो मीत हम होली खेलें
बन जायें मतंग मतवाले
स्वयं रँगे सब को रँग डाले।
रंगरेजवा फागुन आया है
अजब अनोखे रंग लाया है
अंग-अंग में रंग लगा लें
स्वयं रँगे सब को रँग डाले।
राग द्वेष के कंश जलायें
आनँद के रंग में रंग जायें
नंदगाँव में नीड़ बना लें
स्वयँ रँगे सब को रंग डाले।
(7)
फगुनाया मौसम है फगुनाई बोली है।
मन का गुलाल उड़े आयी फिर होली है।।
शरमाई कलियों के घूँघट पट खुलते ही।
आयी फिर गुलशन में अलियों की टोली है।।
याद नहीं कुछ भी अब भूल गये शिकवे सब।
रंगों में रंगे लगा रहे मन की. रोली है।।
मस्ती का आलम है कदम लड़खड़ा रहे।
आँखे बतलाती हैं चढ़ी भंग की गोली है।।
डूब गये सभी आज 'आनंद' समन्दर में।
मृगनयनी होली ने मिश्री फिर घोली है।।
-रमेश मिश्र ‘आनंद’
(उत्तर प्रदेश के ख्यात कवि और गीतकार हैं और ऊपर की दोनों रचनाएं इन्हीं की हैं)
(8)
मन के द्वारे बज उठा,
फागुन का संगीत।
मेरी कोरी कल्पना ने,
बुने कितने गीत।।
अमराई में गूंज उठी,
कोयलिया की तान।
अन्तरमन की खुशी बनी,
अधरों की मुस्कान।।
चुनौती देता सूर्य को,
दहकता हुआ पलाश।
ठूंठ, डालियाँ, फूल बचे,
पत्तियों का अवकाश।।
मतवाली बन घूमती,
यह चंचल बयार।
अलसाई धरा महक उठी,
ज्यों हो पहला प्यार।।
पेड़ों में नव किसलय के,
कोमल नन्हें गात।
दिल ही दिल में रह गई,
मन की सारी बात।।
हौले-हौले गूँज रहा,
फागुन का संगीत।
मेरी कोरी कल्पना,
बुनती रहती गीत।।
-स्वर्णलता ठन्ना
(रचना युवा रचनाकार की पुस्तक स्वर्ण सीपियां से ली गई है)