जयंती (18 फरवरी) पर विशेष : निश्छलता, निर्मलता और पवित्रता की त्रिवेणी है रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व- श्वेता नागर

संत श्री रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर लेखिका श्वेता नागर का यह लेख पढ़ें आपके लिए। पढ़ कर प्रतिक्रिया अवश्य दें।

जयंती (18 फरवरी) पर विशेष : निश्छलता, निर्मलता और पवित्रता की त्रिवेणी है रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व- श्वेता नागर
स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी।

श्वेता नागर

जिस तरह कमल कीचड़ में खिलते हुए भी कीचड़ की गंदगी से मुक्त रहता है ठीक वैसे ही संसार में रहते हुए भी सांसारिक बुराइयों जैसे मद, मोह, माया, अहंकार और घृणा के कीचड़ में अपने व्यक्तित्व की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए मानव से महा मानव बनने की यात्रा पूर्ण करते हुए संपूर्ण मानवजाति को मानवता का संदेश देते स्वामी रामकृष्ण परमहंस भारत की महान संत परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

महानता, मानवता की परछाई हैं। क्योंकि मानवता का मान न रखते हुए महान बनने की सोच उस सीढ़ी के समान है जो केवल हवा में लटकी दिखाई देती है जिसका कोई धरातल नहीं है और जिस पर चढ़ना और ऊंचाई पर पहुंचना केवल कल्पना में विचरण करना ही है।

और इसलिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अपने संपूर्ण जीवन में स्वयं को महान या दिव्य बताने की चेष्ठा कभी नहीं की बल्कि संसार को यही संदेश दिया कि प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश है और उस ईश्वर के अंश के प्रति संवेदनशील भाव को रखना ही व्यक्ति को महान बना देता है। यानी अपने मानवीय मूल्यों को बनाए रखना ही ईश्वर के प्रति हमारी आस्था की अभिव्यक्ति है और स्वीकृति भी। 

रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय 

मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी का नाम खुदीराम और माताजी का नाम चन्द्रा देवी था।

बचपन से ही गदाधर यानी रामकृष्ण परमहंस का मन मस्तिष्क सांसारिक जीवन को स्वीकार नहीं कर रहा था। उनका हृदय अलौकिक संसार में विचरण करना चाह रहा था और ऐसा हुआ भी। निरंतर आध्यात्मिक अनुभूतियों से उनका साक्षात्कार होता रहा और वे "परमहंस" अवस्था को प्राप्त कर गए।

रामकृष्ण परमहंस मां काली के अनन्य उपासक रहे, उन्हें देवी ने साक्षात् दर्शन दिए और और इसी दैवीय तत्व ने उनकी जीवन लीला को देव लीला में बदल दिया।

रामकृष्ण परमहंस की दृष्टि दिव्य और सोच विराट थी इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारत ही नहीं विश्व के आध्यात्मिक चिंतकों और संत परम्परा में वे पहले ऐसे संत रहे जिन्होंने सभी धर्मों की साधना उन्हीं धर्मों की पूजा पद्धति के अनुसार की और स्पष्ट रूप से रेखांकित किया कि सभी धर्मों का सार एक ही है वह है मानव का कल्याण करना। 

स्वामी विवेकानंद के गुरु के रूप में रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व

स्वामी विवेकानंद हर बात को तर्क की तुला पर तोलते थे और वे केवल श्रद्धा या आस्था के पैमाने पर व्यक्तिव का परीक्षण नहीं करते थे। उनकी सोच वैज्ञानिक थी। इसलिए रामकृष्ण परमहंस के  व्यक्तित्व को भी उन्होंने श्रद्धा के पैमाने से नहीं नापा अपितु तार्किक और विवेक सम्मत दृष्टि से निरखा और परखा। और उसके बाद ही स्वयं को रामकृष्ण परमहंस के प्रति समर्पित कर दिया।

तात्पर्य यह है कि स्वामी विवेकानंद जैसा तार्किक और प्रज्ञा पुरुष रामकृष्ण परमहंस को गुरु के रूप में स्वीकारता है तो यह रामकृष्ण परमहंस की दिव्यता को प्रमाणित करता है।

स्वयं स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के प्रति अपने श्रद्धा भाव को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है "भाइयों, तुम लोगों ने मेरे हृदय के एक दूसरे तार, सब से अधिक कोमल तार का स्पर्श किया है, वह है मेरे गुरुदेव, मेरे आचार्य, मेरे जीवनादर्श, मेरे ईष्ट, मेरे प्राणों के देवता श्री रामकृष्णदेव का उल्लेख! यदि मनसा, वाचा, कर्मणा मैंने कोई सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकली हो, जिससे संसार के किसी भी मनुष्य का कुछ उपकार हुआ हो तो उसमें मेरा कुछ भी गौरव नहीं, वह उनका है। परंतु यदि मेरी जिह्वा ने कभी अभिशाप की वर्षा की हो, यदि मुझसे कभी किसी के प्रति घृणा का भाव निकला हो, तो वे मेरे हैं, उनके नहीं। जो कुछ दुर्बल है, वह सब मेरा है, पर जो कुछ भी जीवनप्रद है, बलप्रद है, पवित्र है, वह सब उन्हीं की शक्ति का खेल है, उन्हीं की वाणी है और वे स्वयं हैं।"

ऐसे महान संत रामकृष्ण परमहंस को उनकी जयंती (18 फरवरी) पर शत-शत नमन है।

(श्वेता नागर लेखिका, शिक्षिका एवं संत श्री रामचंद्र परमहंस जी की उपासक भी हैं)